संदेश

2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शिव भक्त उपमन्यु

शिव-भक्त उपमन्यु, महर्षि व्याघ्रपाद का पुत्र था। उसकी भी गणना अर्थार्थी-भक्तों में की जाती है। एक दिन उपमन्यु माता से दूध माँगा। घर में दूध न होने के कारण माता ने चावलों का आटा जल में घोलकर उपमन्यु को पीने के लिए दिया। उपमन्यु अपने मामा के घर असली दूध पी चुका था। इसलिए इस नकली दूध को तुरंत पहचान गया और माता को बोला, “मां! यह तो दूध नहीं है।” ऋषि-पत्नी झूठ बोलना नहीं जानती थीं। उन्होंने कहा, “बेटा! तू सत्य कहता है दूध नहीं है। हम तपस्वी एवं पर्वतों की गुफाओं में जीवन बिताने वाले अकिंचन हैं, इसलिए अपने यहां असली दूध कहां से मिल सकता है? हमारे तो परमाराध्य-सर्वस्व भगवान् श्री शंकर हैं, यदि तू अच्छा दूध पीना चाहता है, तो उन आशुतोष कैलाश पति भगवान् महादेव को प्रसन्न कर, उनकी प्रेम से आराधना कर। उनके प्रसन्न हो जाने पर दूध क्या दूध का समुद्र प्राप्त हो सकता है।” माता की बात सुनकर बालक उपमन्यु ने पूछा, “मां! भगवान् महादेव कौन हैं? कहां रहते हैं? उनका कैसा स्वरुप है? मुझे वह किस प्रकार मिलेंगे? और उन्हें प्रसन्न करने का क्या उपाय है?” बालक के यह वचन सुनकर स्नेहवश माता की आंखों में आँसू

आतंक

यमराज ने मृत्यु को बुलाकर एक हज़ार आदमी मार लाने का आदेश दिया। आज्ञा का पालन कर जब यमराज लौटे तो उनके साथ एक हजार के बजाय तीन हज़ार मृतात्मायें थीं। यमराज ने कुपित होकर कहा, “यह तुमने क्या किया? मैंने तो एक हज़ार के लिए ही कहा था। तुमने आदेश का उल्लंघन क्यों किया।” “यमराज, मैंने आपकी आज्ञा क्या अक्षरशः पालन किया है।” “तो फिर, यह कैसे हुआ?” मृत्यु ने हाथ जोड़कर क्षमा याचना करते हुए कहा, “देव, हमने तो एक हज़ार को ही मौत के घाट उतारा है। शेष तो डर के मारे स्वयं मर कर साथ हो लिए हैं।” वस्तुतः होता यह है। वास्तविक विपत्ति से जितनी हानि होती है, उस की तुलना में कई गुना हानि लोग कर लेते हैं। भय, आशंका, चिंता, निराशा आदि की उद्विग्नता से दुखी होकर लोग अपना संतुलन गँवा बैठते हैं। और इस आपाधापी में शरीर एवं मन के तनाव से शिकार होने के साथ-साथ अपने हाथों के नीचे के कामों को ही अस्त-व्यस्त कर बैठते हैं। इसके विपरीत यदि धैर्य, साहस संतुलन कायम रखा जा से तो वास्तविक विप्पति से निपटने के लिए विवेकयुक्त उपाय सोचे जा सकते हैं एवं अनावश्यक हानियों से बचा जा सकता है।

जितना दिखता है, उतना तो आगे बढ़ो

एक भोले-भाले किसान को रात्रि के समय एक आवश्यक कार्य  से दो मील दूर किसी गांव में जाने की आवश्यकता पड़ गई। रास्ता अंधकारमय था। प्रकाश के लिए उसने लालटेन साथ में ली। पहले-पहल वह रात्रि में किसी अंय गाँव जा रहा था। उसने यात्रा आरंभ की। लेकिन आश्चर्य! घर से चार कदम चल कर वह एकाएक रुक गया। गांव का ही किसी समझदार व्यक्ति उसे जाते हुए देख रहा था। उसे यात्रा के प्रारंभ में स्तंभित होकर रुकने का कारण पूछा, “क्यों भाई, रुक क्यों गए?” किसान ने कहा, “हमें जाना है दो मील, लेकिन लालटेन के उजाले में रास्ता दिखता है केवल दस गज का। दो मील का रास्ता अंधेरे में कैसे पूरा होगा?” सज्जन ने कहा, “भले आदमी, जितना दिखता है उतना तो आगे बढ़ो। उसके बाद फिर उतना ही रास्ता आगे और दिखने लगेगा।” किसान ने बात मान ली। वह लालटेन लेकर चल पड़ा। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया, आगे का रास्ता प्रकाशित होता रहा और अंत में वह अपने लक्ष्य स्थान तक पहुंच ही गया। तात्पर्य है कि अपने विवेक के प्रकाश में जितना सत्य दिखता हो, उसको आचरण में लाते रहने का परोक्ष सत्य भी प्रत्यक्ष हो जाएगा यह निश्चय है।

किसान-विधाता-पर्वत

विधाता ने अपनी रचित सृष्टि का सर्वेक्षण करने के विचार से दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक किसान फावड़ा लेकर एक विशाल पर्वत शिखर को खोदने में तल्लीन है। कुछ विस्मय हुआ। साकार हो कर किसान के सम्मुख प्रकट हुए और उससे इस दुस्साहिक कार्य का कारण क्या है पूछा। किसान ने अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए ही बताया कि, “भगवान, बादल आते हैं और इस पर्वत शिखर से टकरा कर दूसरी ओर वर्षा कर देते हैं। मेरे खेत सूखे की सूखे ही रहते हैं। अतः मैंने संकल्प किया है कि इस पर्वत को मैं यहां से हटाकर ही चैन लूंगा।” विधाता आश्चर्यचकित हुए, “क्या तुम इतने विशाल पर्वत को अकेले ही तोड़ पाओगे?” किसान ने आत्मविश्वास के साथ कहा, “मेरा यह दृढ़ संकल्प है मुझे निश्चय इस कार्य में सफलता मिलेगी।” विधाता किसान के आत्मबल पर निर्भरता को देखकर अत्यंत प्रभावित हुए और आगे चलने को हुए। इतने में पर्वतराज  गिड़गिड़ाने लगे। “भगवान, इस किसान से मेरी रक्षा कीजिए।” विधाता के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, “गिरिराज तुम एक छोटे से किसान से इतने त्रस्त हो गए हो।” गिरिराज बोला, “किसान छोटा है तो क्या, उसका संकल्प दृढ़ है। उसका आत

भाग्य और पुरुषार्थ

“तुम्हारे पकाए हुए इन मिट्टी के बर्तनों को कोई तोड़ दे तो तुम क्या करोगे?” भगवान महावीर ने उस कुम्हार से पूछा, जो कि मिट्टी का बर्तन चाक पर बना रहा था। “यदि भाग्य में यही लिखा है तो ऐसा ही होगा” कुम्हार का उत्तर था। वह कुमार भाग्यवादी था, पुरुषार्थ उसकी दृष्टि में ज्यादा महत्व का नहीं था। “और यदि तुम्हारी पत्नी से कोई दुराचरण करे तब?” महावीर फिर पूछ बैठे। इतना सुनते ही कुम्हार का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, “किसकी हिम्मत है कि वह ऐसा कर सके। यदि कोई मेरी पत्नी की और आँखें उठाकर भी देखें तो मैं उसे अच्छी तरह निपट लूँगा।” “लेकिन यह भी तो नियतिवश ही होगा। इसमें क्रोधित होने की तो कोई बात नहीं।” महावीर के इन वचनों से कुम्हार का भ्रम दूर हुआ और नत होकर स्वीकार किया, “आप ठीक कहते हैं भगवान। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जीवन में पुरुषार्थ के द्वारा ही भाग्य का निर्माण होता है।”

श्रेष्ठ कार्य

महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ संध्या समय एक उद्यान में भ्रमण कर रहे थे। उसी उद्यान के सरोवर में कमल के फूल यथेष्ठ संख्या में खिले हुए थे। कमल के फूलों से सरोवर जैसे मुस्कुरा रहा था। उस शोभा को देखने में मग्न महात्मा बुद्ध आनंदविभोर हो रहे थे। एक शिष्य उनकी इस दशा को देखकर सरोवर से एक पुष्प तोड़ लाया एवं बुद्ध के चरणों में अर्पित कर दिया। बुद्ध के शिष्य का यह कार्य अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा, ”वत्स, तुमने यह कार्य उचित नहीं किया। किसी ने अपने परिश्रम से सरोवर की शोभा बढ़ाने के लिए इन पुष्पों को लगाया होगा। दूसरे की परिश्रम से लगे हुए पुष्पों को तोड़ने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। यह पाप है।” शिष्य ने अपने इस अनुचित कार्य को स्वीकार करते हुए क्षमा याचना की। थोड़ी ही देर बाद एक अन्य व्यक्ति आया एवं निर्दयतापूर्वक पुष्पों को तोड़कर फेंक ने लगा। इस दृश्य को भी बुद्ध ने देखा। लेकिन वह शांत रहे, उस व्यक्ति की भर्त्सना नहीं की, कुछ बोले नहीं। शिष्य से नहीं रहा गया, पूछ बैठा, “भगवान, आपको अर्पित करने के लिए एक पुष्प तोड़ने की त्रुटि के कारण आपने हमारी भर्त्सना की थी, लेकिन इतने पुष

निश्चल क्यों हो?

बुद्ध भिक्षु किसी वेश्या के निवास स्थान के आगे से चला जा रहा था। वेश्या बाहर खड़ी थी। भिक्षु का अभिवादन किया एवं वर्षाकाल का चतुर्मास उनके ही घर में बिताने के लिए भिक्षु को आमंत्रण दे दिया। साधारण भिक्षु होता तो कह देता, “मैं भिक्षु होकर वेश्या के घर नहीं रुक सकता”, एवं ऐसा कहकर वह आगे बढ़ जाता और शायद फिर कभी भी उस घर के आगे से नहीं गुजरता। वेश्या ने भी सोच रखा था, भिक्षु इस आमंत्रण को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन उस भिक्षु ने कहा, “आ जाऊंगा, लेकिन बुद्ध की आज्ञा लेनी पड़ेगी। कल मैं उनकी आज्ञा जैसी होगी, तुम्हें सूचित कर जाऊंगा।” वेश्या ने शंका की, “यदि आज्ञा नहीं हो तब?” भिक्षु ने उत्तर में कहा, “मुझे दृढ़ विश्वास है बुद्ध आज्ञा दे देंगे। कारण वेश्या गृह में रहकर मेरे में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। आज्ञा मांगने की केवल औपचारिकता मात्र है। वैसे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।” दूसरे दिन सारे भिक्षुओं के बीच, उस भिक्षु ने खड़े होकर बुद्ध से निवेदन किया, “एक मजेदार घटना घट गई है। मैं मार्ग में चला जा रहा था, तभी एक वेश्या वर्षाकाल के चार मास उनके घर में व्यतीत करने के लिए आमंत्रण दिया ह

छोटा शेर बड़ा होने पर

ब्रिटिश राज्य के समय में एक ब्रिटिश फौजी अफसर भारतवर्ष में आया था। उसको शिकार का बहुत शौक था। एक बार जब वह शिकार करने गया तो उसको एक छोटा शेर का बच्चा मिल गया। बच्चा बड़ा ही प्यारा था। उसको घर साथ ले आया एवं बराबर साथ रखने लगा। यहां तक कि रात में भी उसको साथ सुलाता था। काफी समय बाद एक दिन अचानक रात्रि में उस फौजी अफसर की नींद खुल गई। उसकी हथेलियों में जलन और दर्द हो रहा था एवं वह पसीने से तर-बतर हो गया था। उसने देखा वह शेर का बच्चा प्यार से उसका हाथ सहला रहा है। लेकिन वह शेर अब बड़ा हो चला था और उसके नाखून निकल आए थे। सहलाने के साथ-साथ नाखून से उस अफसर की हथेलियां खरोच रहा था और उन से खून बह रहा था। फौजी था ही। उसके पास दूसरा चारा नहीं था। उसने तकिए के नीचे से रिवॉल्वर निकाली एवं शेर के बच्चे को ढेर कर दिया। दोष अर्थात बुरी आदतें भी मानव जीवन में उस शेर के बच्चे की तरह धीरे-धीरे आने लगती हैं। आरंभ से वे दोष बहुत साधारण मालूम होते हैं एवं लगता है कि उनके आ जाने से कोई विशेष हानि नहीं होगी। उन देशों का समर्थन भी हम यह कह कर देते हैं कि ज़रा सी बात है, इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा। ल

नसीहत

एक नौजवान जीवन से निराश होकर किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकता फिरता था, जो उनके निराश जीवन में सही दिशा दे सके। एक दिन उसे एक वृद्ध व्यक्ति मिल गया। उसने उस वृद्ध व्यक्ति को अपने जीवन की समस्याएं विस्तार में बताईं और किस तरह जीवन में सफलता मिल सके उसके बारे में उनकी राय जाननी चाही। वृद्ध ने उस व्यक्ति की बात को अनसुनी करते हुए पूछ लिया कि, “क्या तुम सामने वाले पेड़ पर चढ़ सकते हो?” युवक ने बताया कि हां वह चढ़ सकता है। वृद्ध ने कहा, “तो चलना प्रारंभ करो।” युवक ने कहा, “लेकिन मेरी समस्याओं के समाधान के साथ वृक्षारोहण का क्या संपर्क?” वृद्ध ने उत्तर दृढ़ता से कहा, “तुमने मेरे सामने समस्याएं रख दी हैं, अब तुम निश्चिंत होकर जैसा मैं कहूं वैसा करो।” एक प्रकार लाचारी से उसने वृक्ष पर चढ़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह उच्चतम शिखर पर पहुंच गया। वृद्ध कुछ नहीं बोला, केवल युवक की क्रिया को शांत स्थिर होकर देखता रहा। अब वह जवान नीचे उतरने लगा। जब वह मुश्किल से ज़मीन से 10 से 15 फीट की ऊंचाई पर रह गया तो अचानक वृद्ध ने कहा, “बेटा संभलकर उतरना।” युवक को बड़ा आश्चर्य हुआ। जब आसमान जितनी ऊं

साथी की खोज

एक फकीर के घर में आधी रात गए एक चोर घुस गया। चोर ने सोचा, गृहस्वामी सो गया होगा। लेकिन तब वह जग रहा था। दिये की रोशनी में कुछ लिखने में तल्लीन था। चोर घबरा गया, छूरा निकाल लिया। फकीर ने उसकी तरफ देखा और कहा, “छूरा अंदर कर लो, इसकी शायद ही कोई जरूरत पड़े।” फिर कहा, “थोड़ा इंतजार करो, मैं यह लिखने का कार्य समाप्त कर लूं, फिर तुमसे काम की बात करूँगा।” फकीर की बात में कुछ ऐसा आकर्षण था कि चोर सम्मोहित सा बैठ गया। हाथ का काम समाप्त कर फकीर ने पूछ, “कैसे आना हुआ? थोड़े में सच-सच बता दो, ज्यादा समय न खराब करो। मेरे सोने का समय हो गया है।” चोर ने कहा, “आप बड़े विचित्र व्यक्ति हैं। आप देख रहे हैं, मैं चोर हूँ, हाथ में छूरा है, काला कपड़ा पहने हूँ, चोरी करने आया हूं।” फकीर ने कहा, “लेकिन तुम गलत जगह आ गए हो। आज तक किसी ने चोरी करने लायक मेरा घर नहीं समझा। यह पहला मौका है, कोई चोरी करने मेरे यहां आया है। आना ही था तो पहले सूचना तो दे देते, ताकि मैं तुम्हारी चोरी के लिए कुछ इंतज़ाम करके रखता। यहां तो कुछ भी नहीं है। क्या चुराओगे? अब यदि तुम खाली हाथ जाओगे तो बदनामी की बात होगी। लेकिन ठहरो,

राजा भोज एवं कवि कालिदास

भारतीय इतिहास मैं राजा भोज एवं कवि कालिदास का एक महत्वपूर्ण स्थान है। राजा भोज संस्कृत के अच्छे विद्वान थे, अतएव उनके दरबार में कालिदास, दण्डी, भारवि आदि बड़े-बड़े प्रतिभावान विद्वान रहते थे। एक समय राजा भोज के मन में यह जिज्ञासा हुई कि मेरी सभा में नवरत्नों में से श्रेष्ठ विद्वान-कविरत्न कौन है? यह तो मानी हुई बात है कि संसार में सब एक से नहीं होते। छोटे-बड़े हुआ करते हैं, किसी की किसी विषय में योग्यता एवं प्रौढ़ता होती है, तो किसी की अन्य किसी विषय में। राजा ने यह जिज्ञासा अपनी सभा में प्रकट की। एक मंत्र-शास्त्र वेत्ता ने सम्मति दी कि इसका निर्णय भगवती श्रीसरस्वती जी के मुख से ही होना चाहिए। नवरात्रि का शुभ समय समीप ही आ रहा था, इसलिए उसने राजा भोज से कहा कि, “उस समय विधि पूर्वक कुंभ-स्थापन कर मातेश्वरी भगवती श्रीशारदा से ही इस विषय का प्रश्न करना चाहिए। वह ही कृपया कविश्रेष्ठ का नाम बतला देंगी।” सभी नवरत्नों को अपनी-अपनी विद्वता एवं नैपुण्य पर पूर्ण विश्वास था। कालिदास ने विचार किया कि सरस्वती तो मेरी माता है, उनकी दिव्य कृपा से ही तो मैं गँवार से विद्वान-कविराज बना हूं। “जिह्व

निकृष्ट भावनाओं से उत्साह हीनता

कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने करण एवं अर्जुन रथारूढ़ होकर युद्ध कर रहे थे। अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण थे। वे अर्जुन में उत्कृष्ट-भावनाएं भर रहे थे। वह कहते थे, “हे अर्जुन! तुम इंद्र पुत्र हो, तुम बड़े वीर हो, तुम विशुद्ध क्षत्रिय राजकुमार हो, तुम्हारा मुकाबला करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है, “पार्थ एवं धनुर्धर” ऐसी अनश्र तो समग्र विश्व में फैले हुए तुम्हारे यश-सौरभ को विकीर्ण करती है। और की तो बात किया? साक्षात काल को भी परास्त कर सकते हो। तुम विश्वविजयी हो, महान हो, तुम्हारे समक्ष यह बेचारा कर्ण क्या चीज़ है; जैसे सिंह के सामने गीदड़, जैसे सूर्य के सामने जुगनू। तुम इसे अभी कुछ ही क्षणों में पराजित कर दोगे। तुझमें अपार-शक्ति है।” इधर कर्ण का सारथी राजा शल्य था। वह भीष्म के समान कौरव पक्ष में रहने पर भी ह्रदय से धार्मिक, सदाचारी एवं भगवद् भक्त पांडवों की ही विजय चाहता था। इसलिए वह कर्ण का सारथी भी नहीं बनना चाहता था। किंतु दुर्योधन ने जब बहुत ही अनुनय-विनय की तब शल्य ने एक शर्त के साथ कर्ण का सारथी बनना स्वीकार किया। शल्य ने कहा मैं जो भी अच्छा या बुरा कहूं, वह सब कर्ण को च

संयम के कारण

बात उन दिनों की है जब नेपोलियन छात्रावस्था में था। उन दिनों अक्लोनी नामक स्थान में उन्हें एक नाई के घर में रहना पड़ा था। नेपोलियन बहुत सुंदर एवं सुकुमार थे, उनकी आकृति में आकर्षण था। नाई की स्त्री उन पर मुक्त हो गई थी और नेपोलियन को अपनी और आकर्षित करने का प्रयत्न निरंतर करती रहती थी। लेकिन नेपोलियन को तो अध्ययन से ही अवकाश नहीं मिलता था। वह स्त्री जब भी उनसे हँसने-बोलने का प्रयास करती, तब तब उन्हें किसी ना किसी पुस्तक में निमग्न देखती। इस कारण स्त्री की इच्छा की पूर्ति नहीं हुई। समय बीता। वही नेपोलियन देश का सेनापति चुना गया। सेनापति होने के बाद उसी नाई के यहां जाने का एक बार फिर अवसर आया। तब वे काफी बड़े हो गए थे, पहचाने भी नहीं जा सकते थे। दुकान पर नाई की स्त्री बैठी थी। नेपोलियन उसके पास जाकर पूछा, “क्या तुम को स्मरण है कि कभी तुम्हारे यहां बोनापार्ट नाम का कोई युवक कुछ दिनों के लिए रहा था?” नाई  की स्त्री झुंझलाकर बोली, “बस… बस रहने दो महोदय। वैसे नीरस व्यक्ति का मैं नाम लेना भी पसंद नहीं करती। किसी से मीठी बात करना तो उसने सीखा ही नहीं था। यहां तक कि उसको नाचना-गाना भी नह

सादगी

रामशास्त्री, पेशवा माधवराव के गुरु थे, साथ ही वह पेशवा के मंत्री और राज्य के न्यायाधीश भी थे। फिर भी उनका रहन-सहन और पहनावा बड़ा सादा और मामूली था। एक बार उनकी पत्नी किसी पर्व के अवसर पर राजभवन में गई। उनकी अत्यंत साधारण वेशभूषा देखकर रानी चकित रह गई। रानी ने उन्हें कीमती कपड़े और रतजड़ित आभूषण पहनाये, फिर राजसी पालकी में उन्हें विदा किया। पालकी रामशास्त्री के घर पहुंची। कहारों ने द्वार खटखटाया। द्वार खुला और फिर तुरंत बंद हो गया। कहार बोले, “शास्त्री जी आपकी धर्म पत्नी आई हैं।” शास्त्री जी बोले, “मेरी पत्नी ऐसे कीमती कपड़े और गहने नहीं पहन सकती। वस्त्राभूषण से सजी हुई यह देवी कोई और ही है, तुम लोग भूल से यहां आ गए हो।” शास्त्री जी की पत्नी अपने पति के स्वभाव को खूब पहचानती थी। उन्होंने कहारों को राजभवन लौट चलने को कहा। रानी-वास में पहुँचकर उन्होंने रानी से कहा, “आपके इन वस्त्र और आभूषणों ने तो मेरे घर का द्वार ही मेरे लिए बंद करा दिया है।” सब कपड़े-गहने उतार कर और अपने साधारण कपड़े पहनकर शास्त्री जी की पत्नी पैदल ही घर लौटी। इस बार रामशास्त्री सजल, गर्वोन्नत नेत्रों स

अच्छी फसल

जर्मनी की सेना का कोई उच्चाधिकारी किसी युद्ध के समय अपने शिविर से कुछ सैनिकों को साथ लेकर घोड़ों के लिए खास एकत्रित करने के लिए चले। समीप में एक गांव के किसान को उन्होंने पकड़ा और कहा, “चल कर बताओ कि इस गांव में किस खेत में अच्छी फसल है।” विवश होकर किसान उन सैनिकों के साथ चल पड़ा। खेत लह-लहा रहे थे। बहुत उत्तम फसल थी। सैनिक चाहते थे कि उन खेतों की फसल काट लें, किंतु किसान बार-बार यही कहता चाहता था, “कुछ और आगे चलिए, आगे बहुत अच्छी फसल है।” धीरे-धीरे किसान सैनिकों को लगभग गांव की सीमा के खेतों तक ले गया। वहां उसने एक खेत बतलाया। सैनिकों ने उस खेत से फसल काट कर गठ्ठे बांधे और घोड़ों पर रख लिए। सैनिक अधिकारी ने क्रोधित होकर किसान को डांटा, “तू व्यर्थ ही हमें इतनी दूर ले आया। इससे अच्छी फसल तो पास के खेतों में ही थी।” किसान ने कहा, “मैं जानता था कि आप लोग खेत के स्वामी को फसल का मूल्य नहीं देंगे। इतना समझते हुए मैं किसी दूसरे का खेत बतला कर उसकी हानि कैसे करा सकता था? यह मेरा अपना खेत है। ये तो आप भी मानेंगे कि मेरे लिए तो इसकी फसल सबसे अच्छी फसल है।” सैनिक अधिकारी लज्जित हो गय

आपसी फूट

एक व्याध ने पक्षियों को फँसाने के लिए अपना जाल बिछाया। जाल में दो पक्षी फंसे, किंतु उन पक्षियों ने झटपट सलाह की और जाल को लेकर उड़ने लगे। व्याध को यह देख कर बड़ा दुख हुआ। वह उन पक्षियों के पीछे भूमि पर दौड़ने लगा। कोई ऋषि अपने आश्रम में बैठे यह दृश्य देख रहे थे। उन्होंने व्याध को समीप बुलाकर पूछा, “तुम व्यर्थ क्यों दौड़ रहे हो? पक्षी तो जाल लेकर आकाश में उड़ रहे हैं।” व्याध बोला, “भगवान, अभी इन पक्षियों में मित्रता है। वे परस्पर मेल करके एक दिशा में उड़ रहे हैं। इसी से वे  मेरा चाल लिए जा रहे हैं। परंतु कुछ देर में इन में झगड़ा हो सकता है। मैं उसी समय की प्रतीक्षा में इनके पीछे दौड़ रहा हूं। परस्पर झगड़ा कर जब वे गिर पड़ेंगे, तब मैं उन्हे पकड़ लूँगा।” व्याध की बात ठीक निकली। थोड़ी देर उड़ते-उड़ते जब पक्षी थक, तब उनमे इस बात को लेकर विरोध हो गया कि उन्हें कहा ठहरना चाहिए। विरोध होते ही उनके उड़ने की दिशा और पंखों की गति समान नहीं रह गई। इसका फल यह हुआ कि वह उस जाल को संभाल नहीं रख सके। जाल  के भार से लड़खड़ाकर स्वयं भी गिरने लगे और एक बार गिरना प्रारंभ होते ही जाल में उलझ गए। अ

विषयासक्त इंद्रियाँ

एक नगर में एक बाबू रहता था, उसके दो औरतें थीं। वे दोनों ही बड़ी बलिष्ठ एवं लड़ाकू थीं। ईर्ष्या द्वेषवश आपस में झगड़ा टंटा किया करती थीं। बाबू दिनभर ऑफिस में काम करता। कभी-कभी ज्यादा काम होने के कारण वह  सायं बड़ी देर से घर पहुँचता था। इन औरतों को समझाते-समझाते वह तंग हो गया था। किसी भी प्रकार से शांति से नहीं रहती थीं। एक दिन वह बड़ी देर से घर पहुंचा। वहां उसने देखा कि दोनों का अखाड़ा खूब जमा हुआ है, एक दूसरे को मुफट गालियां दे रही हैं। एक औरत ऊपर रहती थी और एक नीचे। जब बाबू सीडी द्वारा ऊपर जाने लगा तो नीचे वाली औरत ने उसका पैर पकड़ लिया और गर्जना के साथ ताना देती हुई बोली, “तू ऊपर क्यों जाता है? इस घर में प्रथम में आई हूं, इसलिए मैं तेरे को कभी ऊपर राँड के पास नहीं जाने दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए।” जब ऊपर वाली औरत को मालूम हुआ की नीचे वाली मेरी सौत उसे ऊपर नहीं आने देती है, तब वह सौत को गालियां देते हुए उसके हाथ को ऊपर से पकड़ लिया और कहने लगी कि, “छोड़ इसके पैर को राँड! ऊपर आने दे, यह नीचे तेरे यहां नहीं रहेगा, तेरे फंदे से छूटने के लिए ही तो यह मुझको इस घर में लाया है।” बाबू शुर

महाचाण्डाल

गंगा के किनारे एक साधू अपनी कुटिया बनाकर रहते थे। एक दिन उन्होंने अपने कपड़े धोए। धूप अच्छी थी, वहां गंगा के किनारे रेत पर सुखाने के लिए डाल दिए। तब स्वयं नहां-धोकर अपनी कुटिया में जाकर बैठ गए। तभी वहां एक चाण्डाल आया। उसे भी गर्मी लग रही थी। उसने सोचा, गंगा जी के शीतल जल में स्नान कर लूं। स्नान करने के पश्चात बाहर निकला तो सोचा कपड़े मैले हो गए हैं, इन्हें भी धो लूँ। बस कपड़े धोने लगा। कपड़े धोने की आवाज़ कुटिया में पहुंची तो साधु ने सोचा कि कपड़े कौन धोता है? बाहर आकर देखा तो वहां एक चाण्डाल कपड़े धो रहा था। यह भी देखा कि उसके कपड़ों से उड़ने वाले छींटे साधु के सूखे हुए कपड़ों पर गिर रहे हैं। बस फिर क्या था, चढ़ गया क्रोध। दौड़ते हुए वह साधु चाण्डाल के पास पहुंचे और गालियां देते हुए बोले, “तू अंधा है? चाण्डाल होकर यहां कपड़े धोता है? तेरे अपवित्र छींटों ने मेरे कपड़ों को अपवित्र कर दिया।” आगे चढ़कर दो, तीन, चार चपत उन्होंने चाण्डाल के मुंह पर लगा दी। चाण्डाल हाथ जोड़कर खड़ा रहा। साधु महाराज चिल्लाकर बोले, “फिर मत आना इस स्थान पर।” साधु महाराज थे बूढ़े और दुर्बल, चाण्डाल था हृष्ट

वास्तविक साथी

एक था युवक। नाम रामदास, जाति का गुसाई। एक गांव में अपने पिता के साथ रहता था। पिता मंदिर में पूजा करते थे। लोगों के घरों में मंत्र आदि भी पढ़ते थे। बेटा रामदास उन्हें देखता, पूजा-पाठ में उसकी रुचि भी थी, परंतु उस विद्या को प्राप्त ना कर सका। एक दिन आया जब रामदास के पिता का देहांत हो गया। माता पहले से ही चल बसी थीं। दूसरा कोई संबंधी था नहीं। पिता की मृत्यु के बाद रामदास के लिए यह संसार सूना हो गया। कभी उसने अपने पिता से भगवान का नाम सुना था। दुखी अवस्था में उसने सोचा, “उसी भगवान से मिलूंगा जो सबका अपना है। परंतु भगवान से मिले कैसे? पाए कहां पर?” यह तो उसे पता नहीं था। एक महात्मा के पास पहुंचा उनसे प्रार्थना की, कहा, “मुझे भगवान का दर्शन करा दो, उससे मिला दो।” महात्मा बोले, “यह बहुत कठिन कार्य है, सरलता से होगा नहीं, इसके लिए बहुत परिश्रम करना होगा।” रामदास ने कहा, “मैं करूँगा परिश्रम।” महात्मा बोले, “बहुत अच्छी बात है। वह है कुटिया, उसमें बैठकर भगवान का नाम लिया कर। भोजन तुझे मिल जाएगा। खाने और सोने से अवकाश मिलते ही जप किया कर।” रामदास ने ऐसा करना प्रारंभ किया। परंतु प्रभु के लिए ज

आत्मा मुख्य है, शरीर नहीं

एक था घुड़सवार। पहुंच गया किसी गांव में अपने एक मित्र के पास। मित्र ने उसे देखा तो अपने कमरे में ले गया। उसके घोड़े को बाहर आँगन में बाँधा। यात्री को कमरे में बैठा कर बाहर से बंद कर दिया और घोड़े के पास पहुंच कर उसे पानी पिलाया। घास और दाना खिलाया। तब उसे मालिश करने लगा। खुरैरा लेकर उसकी सेवा करने लगा; उसकी टांगें भी दबाने लगा कि बेचारा दूर से आया है, थक गया होगा। स्वयं वह व्यक्ति भांग पीता था। निश्चित समय पर भांग पिता और जुट जाता घोड़े की सेवा में। घोड़े को गर्मी न लगे, इसलिए उसको पंखे से हवा करता। उसका रंग खराब ना हो इसलिए उसे खूब ज़ोर से मल-मलकर नहलाता। व दुर्बल ना हो जाए, इस ,लिए उसे अच्छे से अच्छा खाना खिलाता। इस प्रकार तीन दिन हो गए। बेचारा यात्री कमरे में बंद खिड़की से देखता की घोड़े की बहुत सेवा हो रही है, उसे खूब संवारा जा रहा है। यात्री आश्चर्यचकित था कि इस व्यक्ति को हो क्या गया है? अतिथि मैं हूं, मित्र मैं हूं, किंतु मेरी परवाह न करके इस घोड़े की सेवा में अहर्निशि लगा हुआ है। तीन दिन व्यतीत हो गए तो एक साधू उधर से निकला। उसने उस व्यक्ति को घोड़े की सेवा करते देखा! बोला, “ख

निकम्मापन

दो व्यक्ति अफ़ीम खाकर एक पेड़ के नीचे बैठे थे। वृक्ष था बेर का। शाखा से एक बेर गिरा। एक अफीमची की छाती पर आ पड़ा। परंतु वह अफीमची ही क्या जो हाथ-पाँव हिलाए। रातभर बेर उसकी छाती पर पड़ा रहा और वह प्रतीक्षा करता रहा कि दूसरे अफीमची उठे और बेर को उसके मुंह में डाल दे; परंतु दूसरा भी तो अफीमची था। वह भी रात भर लेटा रहा, उठा नहीं। प्रातः एक व्यक्ति उधर से निकला। उसने ध्यान से उन दोनों को देखा। पहले समझा, शायद मर गए हैं, मिलते-डुलते नहीं। शायद रात में किसी सर्प अथवा विषैले कीड़े ने काट लिया है और दोनों के प्राण-पखेरु उड़ गए हैं। परंतु पास गया तो देखा कि दोनों की आँखें खुली हैं। दोनों टुकुर-टुकुर देख रहे हैं। आश्चर्य से उसने पूछा, “तुम्हें क्या हुआ है?” वह पैर वाले के पास खड़ा था। वीर वाले ने धीमी आवाज़, “यह बेर उठा कर मेरे मुंह में डाल दो।” उस व्यक्ति ने  बेर उठाया, उसके मुंह में डाल दिया, बोला, “ यह बेर क्या अभी गिरा है?” अफीमची ने कहा, “नहीं भाई! रात से  पड़ा है!” उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा, “रात से यह पड़ा है, तुम्हारे दोनों हाथ विद्यमान हैं, तुमने इसे उठाया क्यों नहीं? बहु

गुरु की परख

संत दादू चले गए एक नए स्थान में। नगर से दूर जंगल में रहने लगे। ज्यों-ज्यों लोगों को पता लगा, त्यों-त्यों वे जंगल में आकर ही प्रभु भक्ति का अमृत पीने लगे। शहर के कोतवाल ने भी संत दादू के संबंध की बातें सुनी। उनके मन में भी आया कि चलकर उस महात्मा के दर्शन करूँ, जिसकी प्रसंशा कितने ही लोग करते हैं। अपने घोड़े पर चढ़कर कोतवाल जंगल की ओर चल दिए। काफी दूर जाने पर भी संत दादू का पता नहीं लगा। हाँ, एक व्यक्ति अवश्य दिखाई दिया दुबला पतला शरीर, केवल एक लंगोटी पहने, वह झाड़ियों को साफ कर रहा था। मार्ग की झाड़ियों को काटता और बाहर फेक देता, ताकि मार्ग साफ हो जाए। कोतवाल ने उसके पास जाकर पूछा, “अरे ओ! पता है कि संत दादू कहाँ रहते हैं?” उस व्यक्ति ने कोतवाल की ओर देखा परंतु बोला नहीं। कोतवाल ने समझा, यह  बहरा है, चिल्लाकर बोले, “अरे मूर्ख, मैं पूछता हूं कि दादू कहां रहता है?” इस बार उस व्यक्ति ने कोतवाल की तरफ देखा भी नहीं, अपना काम करता रहा। कोतवाल को क्रोध आ गया। जिस चाबुक से वह घोड़े चलाता आया था, उसी से उस व्यक्ति को मारने लगा। चाबुक से उस व्यक्ति के शरीर पर नीले-नीले निशान पड़ गए। इत

देवता और असुर

देवताओं और असुरों की एक मनोरंजक कहानी आपको सुनाता हूं। एक धनी सज्जन ने एक बार बहुत से विद्वानों को भोजन का निमंत्रण दिया। अतिथियों में देवता भी थे और असुर भी। जब अतिथि एकत्रित हुए तो असुरों ने गृहपति से कहा, “आप लोग सदा हमारे साथ अन्याय करते हैं, अब हम अन्याय सहन नहीं करेंगे।” गृहपति ने पूछा, “कौन सा अन्याय होता है?” असुर बोले, “विद्या में क्या, ज्ञान में, विज्ञान में, शक्ति में, हर बात में हम देवताओं से आगे हैं। इतना होते हुए भी जहां कहीं भी हम दोनों को बुलाया जाता, वहां पहले देवताओं को भोजन मिलता है, बाद में हमको। यह अन्याय सहन करने योग्य नहीं है। आप देवताओं के साथ हमारा शास्त्रार्थ कराइए किसी भी विषय पर, यदि हम जीत जाएँ, तो इस अन्याय को समाप्त कीजिए। अथवा हम इस अन्याय को चलने नहीं देंगे।” गृहपति ने कहा, “आप क्रोध ना कीजिए, पहले आप ही भोजन करें, देवता पीछे खा लेंगे; परंतु एक शर्त आपको माननी होगी।” असुरों ने पूछा, “ क्या शर्त है?” गृहपति ने कहा, “शर्त यह है कि आपके दोनों हाथों के साथ कोई तीन-तीन फ़ीट की लकड़ियाँ बांध दी जाएंगी। एक लकड़ी दायें हाथ के साथ, दूसरी बायें हाथ क

पश्चाताप के आँसू

मारवाड़ जोधपुर के अधिपति जसवंत सिंह के स्वर्गवास के बाद दिल्ली नरेश औरंगज़ेब ने विधवा महारानी के पुत्र अजीत सिंह को उत्तराधिकारी मानने से अस्वीकार कर दिया। उसने जसवंत सिंह के दीवान के पुत्र दुर्गादास को स्वर्ण मुद्राओं का लालच देकर महारानी एवं अल्पवयस्क राजकुमार की सुरक्षा से विरत करना चाहा। पर दुर्गादास ने स्वामीभक्ति के आगे स्वर्ण मुद्रा के लालच को ठुकरा दिया। जब तक राजकुमार राजकार्य संभालने के योग्य न हो गए तब तक उनको इधर-उधर छिपाकर उनकी प्राण रक्षा करते रहे। एवं दुर्गा दास की स्वामीभक्ति एवं वीरता के कारण ही अजीत सिंह एक दिन मारवाड़ के अधिपति बनने के सफल हुए। किसी गलत धारणा के कारण अजीत सिंह दुर्गादास से असंतुष्ट हो गए। मुसाहिबों के बहकावे में आकर उन्होंने दुर्गादास को बहुत कड़ा दंड दिया और कहा - “आपने बचपन में मुझे बड़ा कष्ट दिया है। मेरे अभिभावक बने रहकर आपने मेरी ताड़ना की है, आप संभवत नहीं जानते थे कि मैं एक दिन मारवाड़ का अधिपति बनूंगा। मैं आप को कठोर दण्ड देता हूं। आप एक मिट्टी का टूटा-फूटा बर्तन लेकर जोधपुर की गलियों में भिक्षाटन कीजिए। बस इतना ही दण्ड आपके लिए पर्याप्त

गाँधी जी और प्रार्थना

महापुरुषों की जयंतियाँ मनाने का प्रत्यक्ष फल होता है। इस अवसर पर हम उनके गुणों का चिंतन एवं उनकी चर्चा करते हैं। यह निश्चय है कि गुणों का चिंतन करने से यह गुण अपने में यत्किंचित आ जाते हैं। ऐसे ही किसी के अवगुणों की चर्चा की जाए तो अवगुण भी कुछ अंशों में जीवन को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। पूज्य बापू महात्मा गांधी के गुणों का कोई अंत नहीं है। आज इस अवसर पर हम उनके गुणों की यत्किंचित चर्चा कर कुछ मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास इस छोटे से लेख में करना चाहेंगे। उनके जीवन में घटी छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से यह प्रयास सरलता से संभव हो सकता है। एक सज्जन गाँधीजी के प्रति द्वेष भाव रखता था। अपना रोष प्रकट करने के लिए उक्त सज्जन दो-तीन पृष्ठों में अपनी संकुचित दृष्टि को प्रतिफलित करते हुए बापू की अनेक बुराइयों का संकलन कर उनके बारे में अनेक खोटी-खरी बातें लिखकर स्वयं ही उनके पास ले गया। लिखा हुआ कागज़ गांधी जी को देकर उनके प्रतिक्रिया जाने के लिए वहां उपविष्ट हो गया। गाँधीजी ने उनके लिखे हुए विवरण को ध्यान से आद्योपांत पढ़ा। पढ़ने के बाद इस पत्र में लगा हुआ और आलपिन निकालकर पास मे