भाग्य और पुरुषार्थ
“तुम्हारे पकाए हुए इन मिट्टी के बर्तनों को कोई तोड़ दे तो तुम क्या करोगे?” भगवान महावीर ने उस कुम्हार से पूछा, जो कि मिट्टी का बर्तन चाक पर बना रहा था।
“यदि भाग्य में यही लिखा है तो ऐसा ही होगा” कुम्हार का उत्तर था। वह कुमार भाग्यवादी था, पुरुषार्थ उसकी दृष्टि में ज्यादा महत्व का नहीं था।
“और यदि तुम्हारी पत्नी से कोई दुराचरण करे तब?” महावीर फिर पूछ बैठे।
इतना सुनते ही कुम्हार का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, “किसकी हिम्मत है कि वह ऐसा कर सके। यदि कोई मेरी पत्नी की और आँखें उठाकर भी देखें तो मैं उसे अच्छी तरह निपट लूँगा।”
“लेकिन यह भी तो नियतिवश ही होगा। इसमें क्रोधित होने की तो कोई बात नहीं।”
महावीर के इन वचनों से कुम्हार का भ्रम दूर हुआ और नत होकर स्वीकार किया, “आप ठीक कहते हैं भगवान। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जीवन में पुरुषार्थ के द्वारा ही भाग्य का निर्माण होता है।”
समयानुसार कार्य होता ही है।नियति की लीलाएँ सुनियोजित ढंग से होता ही है।
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