श्रेष्ठ कार्य

महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ संध्या समय एक उद्यान में भ्रमण कर रहे थे। उसी उद्यान के सरोवर में कमल के फूल यथेष्ठ संख्या में खिले हुए थे। कमल के फूलों से सरोवर जैसे मुस्कुरा रहा था। उस शोभा को देखने में मग्न महात्मा बुद्ध आनंदविभोर हो रहे थे। एक शिष्य उनकी इस दशा को देखकर सरोवर से एक पुष्प तोड़ लाया एवं बुद्ध के चरणों में अर्पित कर दिया। बुद्ध के शिष्य का यह कार्य अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा, ”वत्स, तुमने यह कार्य उचित नहीं किया। किसी ने अपने परिश्रम से सरोवर की शोभा बढ़ाने के लिए इन पुष्पों को लगाया होगा। दूसरे की परिश्रम से लगे हुए पुष्पों को तोड़ने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। यह पाप है।” शिष्य ने अपने इस अनुचित कार्य को स्वीकार करते हुए क्षमा याचना की। थोड़ी ही देर बाद एक अन्य व्यक्ति आया एवं निर्दयतापूर्वक पुष्पों को तोड़कर फेंक ने लगा। इस दृश्य को भी बुद्ध ने देखा। लेकिन वह शांत रहे, उस व्यक्ति की भर्त्सना नहीं की, कुछ बोले नहीं। शिष्य से नहीं रहा गया, पूछ बैठा, “भगवान, आपको अर्पित करने के लिए एक पुष्प तोड़ने की त्रुटि के कारण आपने हमारी भर्त्सना की थी, लेकिन इतने पुष्प तोड़कर सरोवर एवं उद्यान की शोभा बिगाड़ने वाले इस व्यक्ति को आपने कुछ भी नहीं कहा।” बुद्ध ने समाधान करते हुए कहा, “अविवेकी एवं वासनाओं से ग्रस्त यदि कोई व्यक्ति अनुचित कार्य करता है तो यह उसके अज्ञानता का ही परिचायक है, परंतु धर्म प्राण, विवेकशील वह लोग शिक्षक के व्रती साधक यदि कोई अनुचित कार्य करता है वह निंदनीय है, एवं पाप आपका भागी होता है। ऐसे साधक का आचरण अपने स्वयं के लिए वह समाज के लिए श्रेष्ठ व ज्ञान सम्मत होना अनिवार्य होता है।”

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