निश्चल क्यों हो?
बुद्ध भिक्षु किसी वेश्या के निवास स्थान के आगे से चला जा रहा था। वेश्या बाहर खड़ी थी। भिक्षु का अभिवादन किया एवं वर्षाकाल का चतुर्मास उनके ही घर में बिताने के लिए भिक्षु को आमंत्रण दे दिया। साधारण भिक्षु होता तो कह देता, “मैं भिक्षु होकर वेश्या के घर नहीं रुक सकता”, एवं ऐसा कहकर वह आगे बढ़ जाता और शायद फिर कभी भी उस घर के आगे से नहीं गुजरता।
वेश्या ने भी सोच रखा था, भिक्षु इस आमंत्रण को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन उस भिक्षु ने कहा, “आ जाऊंगा, लेकिन बुद्ध की आज्ञा लेनी पड़ेगी। कल मैं उनकी आज्ञा जैसी होगी, तुम्हें सूचित कर जाऊंगा।” वेश्या ने शंका की, “यदि आज्ञा नहीं हो तब?” भिक्षु ने उत्तर में कहा, “मुझे दृढ़ विश्वास है बुद्ध आज्ञा दे देंगे। कारण वेश्या गृह में रहकर मेरे में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। आज्ञा मांगने की केवल औपचारिकता मात्र है। वैसे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।”
दूसरे दिन सारे भिक्षुओं के बीच, उस भिक्षु ने खड़े होकर बुद्ध से निवेदन किया, “एक मजेदार घटना घट गई है। मैं मार्ग में चला जा रहा था, तभी एक वेश्या वर्षाकाल के चार मास उनके घर में व्यतीत करने के लिए आमंत्रण दिया है। मुझे आज्ञा दीजिए।”
बुद्ध ने कहा, “आज्ञा की आवश्यकता है? जब उसने निमंत्रण दिया है तो उसे स्वीकार कर लो। संयासी होकर वेश्या से क्यों डरे?” एक भिक्षु ने खड़े होकर आपत्ति कि यह अनुचित है। संयासी होकर वेश्या के घर क्यों ठहरने की अनुमति दी जा रही है? बुद्ध ने कहा, “इनके मन में कोई विकार नहीं है। इनके लिए वेश्या का आमंत्रण एक मजेदार घटना मात्र है। इन्हें अपने पर विश्वास है।”
चार महीने भिक्षु ने उस वेश्या के घर में बिताए। वेश्या कि कोई क्रिया भिक्षु को विचलित ना कर सकी। वेश्या जब जैसा भोजन कराती वैसा ही कर लेता। नाचती तो नाच देख लेता। गाती तो गाना सुन लेता। अर्धनग्न होकर नाचती तो भी देखता रहता। उनकी किसी क्रिया से भिक्षु ने कोई रस नहीं लिया। न ही विरस प्रकट किया। न तो यही कहा कि बहुत सुंदर है, न कहा की भद्दा है।
इधर अन्य भिक्षुओं में बड़ी बेचैनी थी। वह जानकर उधर भिक्षा के लिए जाते थे और तरह-तरह के समाचार बुद्ध को सुनाते थे कि आज वेश्या नाच रही थी, वह देख रहा था। किसी ने कहा, उसने सब नियम एवं मर्यादाएं तोड़ दी हैं। उसने वेश्या के दिए रेशमी वस्त्र पहन रखे थे….आदि।
बुद्ध कहते, “तुम क्यों परेशान हो, डूबेगा तो वह डूबेगा।”
इधर दो महीने बीतने पर, वेश्या भिक्षु के पैरों में गिर गई और कहा, “तुम इतने निश्चल क्यों हो, भला-बुरा कुछ तो कहो। बुरा भी कहा तो मैं कोई रास्ता निकाल लूंगी।” लेकिन वह निष्पक्ष ही रहा।
चार महीने बाद भिक्षु लौटा, इस बार उसके साथ एक भिक्षुणी थी। वह वेश्या ही भिक्षुणी हो गई थी। बुद्ध के पूछने पर वेश्या ने कहा, “पहली बार मेरी हार हुई है। मैंने भिक्षु का जड़वत जीवन देखा, देख कर हैरान हो गई। मेरी सब चेष्टा निष्फल हो गई। इसकी बीतरागता में जिस शांति और आनंद का दर्शन हुआ, उसी को खोजने मैं भी चली आई हूं।”
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