निकृष्ट भावनाओं से उत्साह हीनता

कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने करण एवं अर्जुन रथारूढ़ होकर युद्ध कर रहे थे। अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण थे। वे अर्जुन में उत्कृष्ट-भावनाएं भर रहे थे। वह कहते थे, “हे अर्जुन! तुम इंद्र पुत्र हो, तुम बड़े वीर हो, तुम विशुद्ध क्षत्रिय राजकुमार हो, तुम्हारा मुकाबला करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है, “पार्थ एवं धनुर्धर” ऐसी अनश्र तो समग्र विश्व में फैले हुए तुम्हारे यश-सौरभ को विकीर्ण करती है। और की तो बात किया? साक्षात काल को भी परास्त कर सकते हो। तुम विश्वविजयी हो, महान हो, तुम्हारे समक्ष यह बेचारा कर्ण क्या चीज़ है; जैसे सिंह के सामने गीदड़, जैसे सूर्य के सामने जुगनू। तुम इसे अभी कुछ ही क्षणों में पराजित कर दोगे। तुझमें अपार-शक्ति है।” इधर कर्ण का सारथी राजा शल्य था। वह भीष्म के समान कौरव पक्ष में रहने पर भी ह्रदय से धार्मिक, सदाचारी एवं भगवद् भक्त पांडवों की ही विजय चाहता था। इसलिए वह कर्ण का सारथी भी नहीं बनना चाहता था। किंतु दुर्योधन ने जब बहुत ही अनुनय-विनय की तब शल्य ने एक शर्त के साथ कर्ण का सारथी बनना स्वीकार किया। शल्य ने कहा मैं जो भी अच्छा या बुरा कहूं, वह सब कर्ण को चुपचाप सुनना होगा, यदि वह मेरी बातों का किंचित प्रतिकार करेगा, तो उसी समय मैं उसके सारथ्य-पद से अलग हो जाऊंगा। हां, मैं उसका सारथ्य वफादारी के साथ करता रहूंगा, परंतु मेरे कैसे भी वचन हों, वह उसको सुनने ही होंगे। कर्ण ने शल्य राजा कि इस शर्त को स्वीकार किया। कर्ण ने सोचा भले ही वह कुछ भी बकवास करता रहे, उससे अपने को क्या मतलब? समरांगण में मेरे रथ का संचालन बराबर होना चाहिए। यह तो प्रमाणिक ढंग से राजा शल्य करेगा ही।

कर्ण में सूर्य की सी तेजस्विता थी। सत्य है कि वह पांडवों का ज्येष्ठ भ्राता एवं सूर्य के सानिन्ध्य से उत्पन्न कुंती पुत्र था। परंतु कन्यावस्था में उत्पन्न होने के कारण लोकापवाद के भय से माता कुंती ने उसका त्याग कर दिया था। राधा नाम एक दासी ने बालक कर्ण को पाल-पोसकर बड़ा किया इसी से वह दासीपुत्र एवं हीन जाति का सूत-पुत्र कहलाया। तथापि वह अर्जुन की अपेक्षा विशेष-बलशाली एवं धनुर्विद्या में अधिक प्रवीण था। युद्ध के समय राजा शल्य, कर्ण के मानस-भवन में निकृष्ट-भावनाएं भरने लगे। वह कहते थे कि, “अरे कर्ण! तुम दासी पुत्र हो, हीनवर्ण के हो, तुम उस क्षत्रिय-राजकुमार-अर्जुन का मुकाबला कैसे कर सकते हो? क्या गीदड़ कभी वनराज-सिंह का मुकाबला कर सकता है? तुम्हारा बल अर्जुन के महान बल के समक्ष नगण्य है, तुच्छ है। इसलिए तुम उस पर किसी भी प्रकार से विजय प्राप्त कर ही नहीं सकते। उस धीर-वीर अर्जुन का एक अन्वर्थ नाम विजय है। उसकी कभी पराजय होती ही नहीं, विजय ही होती है। उसने साक्षात कैलाश-पति भगवान शंकर का मुकाबला किया था और अपने अतुल सामर्थ्य का प्रदर्शन कर पशुपति भोलेनाथ को पसंद कर दिया था। भगवान से उसने अनेक आशीर्वाद, वरदान एवं अजेय-दिव्य-शस्त्र आदि प्राप्त किए थे। उस प्रचुर-शौर्य-निधि के द्वारा तुम इस प्रकार नष्ट हो जाओगे जिस प्रकार दीप की ज्वाला में पड़कर पतंग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार के वचन सुनकर कर्ण के ह्रदय में निकृष्ट-भावनाएं भर जाती थीं। मन का उत्साह नष्ट हो जाता था। उत्साह का न रहना ही एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक-पराजय मानी जाती है। उधर अर्जुन उत्कृष्ट-भावनाओं के द्वारा प्रोत्साहित हो रहे थे, इधर कर्ण निकृष्ट-भावनाओं के द्वारा हतोत्साहित होकर हीन बनते जा रहे थे। अंत में अर्जुन ने ही कर्ण को परास्त किया और वह विजयी हुए।

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