राजा भोज एवं कवि कालिदास
भारतीय इतिहास मैं राजा भोज एवं कवि कालिदास का एक महत्वपूर्ण स्थान है। राजा भोज संस्कृत के अच्छे विद्वान थे, अतएव उनके दरबार में कालिदास, दण्डी, भारवि आदि बड़े-बड़े प्रतिभावान विद्वान रहते थे। एक समय राजा भोज के मन में यह जिज्ञासा हुई कि मेरी सभा में नवरत्नों में से श्रेष्ठ विद्वान-कविरत्न कौन है? यह तो मानी हुई बात है कि संसार में सब एक से नहीं होते। छोटे-बड़े हुआ करते हैं, किसी की किसी विषय में योग्यता एवं प्रौढ़ता होती है, तो किसी की अन्य किसी विषय में। राजा ने यह जिज्ञासा अपनी सभा में प्रकट की। एक मंत्र-शास्त्र वेत्ता ने सम्मति दी कि इसका निर्णय भगवती श्रीसरस्वती जी के मुख से ही होना चाहिए। नवरात्रि का शुभ समय समीप ही आ रहा था, इसलिए उसने राजा भोज से कहा कि, “उस समय विधि पूर्वक कुंभ-स्थापन कर मातेश्वरी भगवती श्रीशारदा से ही इस विषय का प्रश्न करना चाहिए। वह ही कृपया कविश्रेष्ठ का नाम बतला देंगी।”
सभी नवरत्नों को अपनी-अपनी विद्वता एवं नैपुण्य पर पूर्ण विश्वास था। कालिदास ने विचार किया कि सरस्वती तो मेरी माता है, उनकी दिव्य कृपा से ही तो मैं गँवार से विद्वान-कविराज बना हूं। “जिह्वाग्र में सरस्वती” अर्थात माता ने मुझे वरदान दिया है कि वह सूक्ष्म रुप से मेरी जिह्वा पर सदा अवस्थित रहेंगी इसीलिए माता मुझे ही कभी श्रेष्ठ कहेंगी।
राजा भोज ने घट स्थापन कर पूजा एवं स्तुति करने के पश्चात भगवती से वही प्रश्न किया। स्थापित कलश से तीन बार “कविर्दण्डी, कविर्दण्डी, कविर्दण्डी” ऐसी ध्वनि निकली। माता शारदा ने दण्डी कवि को ही श्रेष्ठ कहा। इससे कालिदास बहुत दुखी हुए। जिस प्रकार बालक माता से रूठ जाता है, उसी प्रकार कालिदास माता सरस्वती से रूठ गए। यहां तक कि वे भोजन आदि भी करना छोड़ बैठे। माता सरस्वती ने प्रकट होकर कालिदास से पूछा कि, “तू इतना दुखी क्यों है? भोजन आदि भी क्यों नहीं करता?” किन्तु कालिदास कुछ ना बोले। फिर भी भगवती अपना वात्सल्य भाव प्रकट कर कालिदास को मनाने लगीं। कालिदास आक्रोश पूर्वक माता से कहने लगे, “तू ने मेरी इज़्ज़त खराब कर दी, तेरे कथन से भरी सभा में मेरा घोर अपमान हो गया। लोगों के सामने अब मैं सर उठाकर बोलने लायक नहीं रहा।” तब भगवती ने कालिदास से कहा कि, “तुम सभी लोग मेरा तात्पर्य नहीं समझ सके। दण्डी श्रेष्ठ कवि है, परंतु तुम तो मेरे पुत्र होने के कारण मेरी आत्मा ही हो। तुम मेरा अभिन्न स्वरूप हो, इसलिए मैंने तेरी श्रेष्ठता की घोषणा नहीं की। यदि मैं तुझे श्रेष्ठ कहती, तो तेरे प्रति जो मेरा आत्मभाव है, वह सिद्ध नहीं होता। दण्डी कवि श्रेष्ट हो सकता है, परंतु उससे भी बढ़कर वह मेरी आत्मा नहीं हो सकता। और आत्मा से बढ़कर निरवधिक-प्रीति के प्रदर्शन के लिए अन्य कोई भी उपमा नहीं मिल सकती। आत्मा ही एक मात्र निरवधिक-प्रीति का आस्पद होता है। आत्मा केवल तू है दण्डी नहीं।”
भगवती सरस्वती द्वारा इस प्रकार सुनकर कालिदास बहुत ही प्रसन्न हुए, माता के श्री चरणों में बारंबार प्रणाम एवं क्षमा प्रार्थना करने लगे। कालिदास ने कहा की, “सभा में भी आपको ऐसा ही रहस्य प्रकट करना होगा, जिससे मेरा सलज्ज-मुख लोगों के सम्मुख हर्षोद्रिक से सुमन्नत बन सके। मेरा गौरव सब की समझ में आ जाए।” माता ने स्वीकार किया। पुनः सभा में राजा भोज द्वारा कुंभ-स्थापित किया गया और भगवती से प्रश्न किया कि, “यह कालिदास कैसा है?” कुंभ से भगवती की आवाज़ आई कि, “यह कालिदास मेरी आत्मा है, जो सामर्थ्य मुझमे है, वही इस में भी है।” इस प्रकार “आत्मा” शब्द के प्रयोग से भगवती-वाग्देवी ने कवि कालिदास का अनुपमेय-गौरव सभा के समक्ष सिद्ध कर दिया।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें