पश्चाताप के आँसू

मारवाड़ जोधपुर के अधिपति जसवंत सिंह के स्वर्गवास के बाद दिल्ली नरेश औरंगज़ेब ने विधवा महारानी के पुत्र अजीत सिंह को उत्तराधिकारी मानने से अस्वीकार कर दिया। उसने जसवंत सिंह के दीवान के पुत्र दुर्गादास को स्वर्ण मुद्राओं का लालच देकर महारानी एवं अल्पवयस्क राजकुमार की सुरक्षा से विरत करना चाहा। पर दुर्गादास ने स्वामीभक्ति के आगे स्वर्ण मुद्रा के लालच को ठुकरा दिया। जब तक राजकुमार राजकार्य संभालने के योग्य न हो गए तब तक उनको इधर-उधर छिपाकर उनकी प्राण रक्षा करते रहे। एवं दुर्गा दास की स्वामीभक्ति एवं वीरता के कारण ही अजीत सिंह एक दिन मारवाड़ के अधिपति बनने के सफल हुए।

किसी गलत धारणा के कारण अजीत सिंह दुर्गादास से असंतुष्ट हो गए। मुसाहिबों के बहकावे में आकर उन्होंने दुर्गादास को बहुत कड़ा दंड दिया और कहा - “आपने बचपन में मुझे बड़ा कष्ट दिया है। मेरे अभिभावक बने रहकर आपने मेरी ताड़ना की है, आप संभवत नहीं जानते थे कि मैं एक दिन मारवाड़ का अधिपति बनूंगा। मैं आप को कठोर दण्ड देता हूं। आप एक मिट्टी का टूटा-फूटा बर्तन लेकर जोधपुर की गलियों में भिक्षाटन कीजिए। बस इतना ही दण्ड आपके लिए पर्याप्त है।”

दुर्गादास ने महाराज का अभिवादन किया और दण्ड को कार्यरूप देने के लिए निकल पड़े।

एक दिन महाराज अजीत सिंह जब घोड़े पर सवार होकर राज महल की तरफ जा रहे थे तो दुर्गादास को दण्ड के अनुसार मिट्टी का टूटा-फूटा बर्तन हाथ में लिए फटे-चिथड़े वस्त्र पहने एक धनी के मकान के दरवाज़े पर भिक्षा मांगते हुए खड़े देखा। उनके चेहरे पर झुर्रियां थी, लेकिन आंखों में विचित्र तेज़ था।

महाराज ने रास खींचकर घोड़े को रोका, और दुर्गादास से पश्चाताप का स्वर सुनने की आशा में पूछा - “आप प्रसन्न तो  हैं।“

आंखों में विचित्र तेज़ की ही तरह विचित्र शांत मुद्रा में उनका उत्तर था - “मेरी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं। यदि आपको कड़ाई से न रखा होता, यदि अनुशासन में  शिथिलता आने देता तो मैं भी आज अन्य लोगों की तरह सुखी, संपन्न एवं समृद्धशाली होता, इस तरह टूटा-फूटा मिट्टी का बर्तन लेकर बेघरबार हो कर भीख नहीं मांगता।”

महाराज इतना सुनते ही घोड़े पर से कूद पड़े एवं दुर्गादास को आलिंगन में जकड़ लिया। अब पश्चाताप के आँसू दुर्गादास से नहीं, लेकिन महाराज अजीत सिंह की आंखों से बरस रहे थे।

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