वास्तविकता न भूलें
एक बहुत साधारण व्यक्ति था। वह कम पढ़ा-लिखा होने के साथ निर्धन भी था। नौकरी की तलाश में बम्बई पहुँचा। बम्बई में और कोई नौकरी तो मिली नहीं, एक सेठ जी के यहाँ झाड़ू देने का काम करने लगा। प्रतिदिन प्रातः काल आता, लंबी-चौड़ी दुकान में झाड़ू लगाता। दिन में भी कई बार सफाई करता और जब भी खाली समय मिलता कोई न कोई किताब लेकर बैठ जाता। पढ़ता भी, लिखता भी। उसकी लिखावट बहुत सुन्दर थी। एक दिन सेठ जी ने उसे लिखते हुए देखा; बोले ,”अरे! तू लिखना भी जानता है?” वह बोला, “जी थोड़ा-थोड़ा लिख लेता हूँ।
सेठ जी ने उसे चिट्ठियाँ लिखने पर लगा दिया। अब वह खूब परिश्रम से सँवार कर चिट्ठियाँ लिखने लगा। उसके लिखने का और विषय को प्रस्तुत करने का ढंग बहुत सुंदर था। चिट्ठी में हिसाब-किताब की बात आती तो उसे भी वह खूब अच्छी प्रकार समझा-बुझाकर लिखता।
सेठ जी ने उसे चिट्ठियाँ लिखने पर लगा दिया। अब वह खूब परिश्रम से सँवार कर चिट्ठियाँ लिखने लगा। उसके लिखने का और विषय को प्रस्तुत करने का ढंग बहुत सुंदर था। चिट्ठी में हिसाब-किताब की बात आती तो उसे भी वह खूब अच्छी प्रकार समझा-बुझाकर लिखता।
सेठ जी ने उसे एक दिन उसके द्वारा लिखे गये पत्र को देखा, बोले, “अरे! तू हिसाब-किताब भी जनता है?” वह बोला, “जी थोड़ा-बहुत जानता हूँ।”
सेठ जी ने उसे मुनीम बना दिया। थोड़े समय बाद ही उसके कार्य से प्रसन्न होकर उसे हेड मुनीम बना दिया। अब दूसरे मुनीम जलने लगे।
ईर्ष्या का भाव बहुत है हमारे अंदर। किसी दूसरे व्यक्ति ने तीन मंज़िल का मकान बना लिया तो हम उसे देख-देखकर दिन-रात जलते रहते हैं, बिना आग के जलते रहते हैं। सेठ जी के यहाँ के अन्य मुनीम भी जलने लगे। दूसरी तो बात उन्हें सूझी नहीं,सोचा सेठ जी के कान भरेगें, निन्दा करेंगें; तो इस मुनीम की पदवी छिन जायेगी। परंतु निंदा करने की कोई बात ही नहीं मिली। वह सेठ के मकान में रहता था। उसे दो कमरे मिले थे। एक कमरा खुला रहता था, एक बंद। प्रतिदिन बाहर जाने के पूर्व वह इस बंद कमरे में जाता, फिर थोड़ी देर पश्च्यात बाहर निकल आता। ताला बंद करके, चाबी जेब में रखकर दुकान पर पहुँच जाता और प्रातः से रात्रि तक अपना काम करते रहता।
जलने वालों को ऐसी कोई बात मिली नहीं, जिसे वे सेठ जी से कहें। एक दिन उसे किसी ने दुकान पर आने से पूर्व इस बंद कमरे में जाते देखा, संदेह हुआ कि इस कमरे में क्यों जाता है? इसको बंद क्यों रखता है?
बस, सेठ जी कान भरे जाने लगे, “यह हेड मुनीम बेईमान है, रुपया खा लेता है, हिसाब में गड़बड़ करता है। यह सेठ जी का दिवाला निकाल देगा।”
सेठ जी ने सुना, कहा, “मैं इस प्रकार मानूँगा नहीं, मुझे पता कि वह बहुत ईमानदार है। तुम लोग केवल ईर्ष्या के कारण ऐसा कहते हो।”
एक दिन वह अपने उसी बंद कमरे में गया, अंदर पहुंच कर उसने द्वार बंद कर लिया। दूसरे लोगों ने देखा तो दौड़ते हुए सेठ जी पास पहुंचे, बोले, “चलिए सेठ जी! चोर पकड़ा है। वह बेईमान मुनीम इस समय अपने चुराये हुए रुपयों को गिन रहा है। इसी समय चलिये, वह रुपयों के साथ पकड़ा जायेगा।”
सेठ जी तेज़ी के साथ पहुँचे। देखा, सचमुच कमरे का द्वार अंदर से बंद है। गरजकर बोले, “कौन है अंदर? दरवाज़ा खोलो!”
बड़े मुनीम ने अंदर से आवाज़ दी, “मैं हूँ सेठ जी!”
दूसरे लोगों ने ईर्ष्या भरे स्वर में कहा, “देखिये हम कहते थे ना।”
सेठ जी ने क्रुद्ध होकर कहा, “अंदर क्या कर रहे हो? दरवाज़ा खोलो!”
बड़े मुनीम ने उत्तर दिया, “जी! कोई विशेष काम तो नहीं कर रहा हूँ।”
सेठ जी गरजे, “फिर दरवाज़ा खोलते क्यों नहीं?”
बड़े मुनीम ने कहा, “अच्छा सेठ जी! थोड़ी देर ठहरिये, खोल दूँगा दरवाज़ा।”
सेठ जी पुनः चिल्लाए, “अभी इसी समय खोलो, नहीं तो हम दरवाज़ा तोड़ देंगे।”
बड़े मुनीम ने अंदर से द्वार खोल दिया। सेठ जी और दूसरे लोग कमरे में प्रविष्ट हुए। देखा की वहां साधारण बक्स के अतिरिक्त कुछ नहीं था । सारा कमरा खाली पड़ा था।
सेठ जी ने कहा, “इस सन्दूक में क्या है?” मुनीम जल्दी संदूक पर बैठ गया। हाथ जोड़ कर बोला, “अन्नदाता! यह मत पूछो। संदूक बंद ही रहने दो।”
दूसरे लोगों कहा, “इसी में तो सब कुछ है, इसीलिए खोलने नहीं देता।”
सेठ जी ने कहा, “क्या है इसमें? खोलो, हम इसे देखेंगे।”
मुनीम जी ने बैठे-बैठे कहा, “इसमें कुछ नहीं है सेठ जी! इसे न खुलवाइये। इसमें काम की वस्तु नहीं है।”
सेठ जी ने कहा, “हट जाओ आगे से, हम इसे अवश्य देखेंगे।”
मुनीम की आँखों में आँसू आ गये। धीरे से वह उठा, एक ओर हो गया। सेठ जी ने अपने हाथ में संदूक खोला। अंदर देखा, आश्चर्य से पूछा, “अरे! यह क्या है?”
उसमे थी एक फटी हुई धोती, एक मैला सा कुरता, एक पुराना टूटा हुआ जूता।
सब लोगों ने उन वस्तुओं को देखा। कोई भी इनका अर्थ नहीं समझ सका। बड़े मुनीम ने हाथ जोड़कर सिर झुका कर भूमि की ओर देखते हुए कहा, “ये वे वत्र हैं सेठ जी, जिन्हें पहनकर कई वर्ष पूर्व मैं इस नगर में आया था, और आपकी सेवा में उपस्थित हुआ था। आपसे नौकरी की प्रार्थना की थी और आपने कृपा कर के मुझे झाड़ू देने की नौकरी दी थी। आपकी इस कृपा को मैं भूल न जाऊँ, मैं अपनी वास्तविकता को याद रख सकूँ, मेरे हृदय में कभी अभिमान न जागृत हो उठे, इसलिए प्रतिदिन प्रातः काल दुकान पर जाने के पूर्व इन वत्रों को देखता हूँ और प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि, “प्रभु! मुझे अभिमान से बचाएँ और मुझे शक्ति दें कि मैं अपने सेठ जी की सेवा अधिक से अधिक परिश्रम और ईमानदारी से साथ कर सकूँ।”
सेठ जी ने यह बात सुनी तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। आगे बढ़कर उन्होंने मुनीम जी को अपनी छाती से लगा लिया, बोले, “धन्य हो मुनीम जी! तुम्हारी भाँति सब लोग करें तो दुनिया से पाप का नाश हो जाए, क्योंकि अभिमान ही पाप का मूल्य है।”
यह है नम्रता की महिमा!
अरे मानव! अपनी वास्तविकता को न भूल! बहुत अभिमान है तुझे, बहुत घमण्ड है कि मैं वह हूँ। मैंने यह कर दिया और वह कर दिया। अरे! यह अभिमान तुझे पतन की ओर ले जायेगा। इसे छोड़ और वास्तविकता को याद कर।
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