वायदे वायदों के लिए है
कवि सम्मलेन, मानस सम्मलेन आदि अनके प्रकार के सम्मलेन होते रहते हैं। लेकिन यह सम्मलेन अपने में विचित्रता लिए हुए था। यह सम्मलेन पाँच असमर्थ एवं अपंग लोगों का था। प्रथम सदस्य अंधे व्यक्ति ने सम्मलेन का प्रारम्भ करते हुए कहा, “यदि मेरी आँखें होती तो जहाँ बुराई देखता उसका सुधार करने का प्रयास करता एवं अच्छा ही अच्छा देखता।” दूसरा सदस्य जो लँगड़ा था, उसने प्रथम का समर्थन करते हुए अपनी राय दी “बात सही है, यदि मेरे भी पैर होते तो मैं दौड़-दौड़कर अपंगों की मदद करता। तीसरा जो दोनों अंगों से ठीक था, लेकिन निर्धन था, उसने अपनी समस्या बताते हुए कहा, “यदि मेरे पास धन होता तो, मैं सारा धन परोपकार एवं जनहित में लगाता।”
चौथा निरक्षर मूर्ख था, उसने भी अपनी दिक्कत बताई, “मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, अन्यथा मैं देश में अशिक्षता को मिटाने में अपना समय लगाता।” अन्तिम सदस्य जो शरीर से अस्वस्थ एवं क्षीणकाय था, उनकी भी समस्या थी, “यदि मुझमें शारीरिक बल होता तो निर्बल एवं दुःखी जनों पर कभी अत्त्याचार नहीं होने देता।”
उपलब्ध साधनों का किसी प्रकार उपयोग का विचार न करते हुए प्रारब्ध को दोषी ठहराकर सम्मलेन समाप्त हुआ। लेकिन उनको क्या पता कि देवराज इन्द्र उनकी इस चर्चा को सुन रहे थे। उनकी सत्यता एवं परीक्षा लेने हेतु उन्होंने पाँचों को मनचाहा साधन दे दिया। अर्थात अंधे तो आँखें, लंगड़े को पैर, निर्धन तो धन, मूर्ख को विद्या एवं दुर्बल को स्वस्थ्य।
परिस्थिति बदलते ही उन लोगों का विचार बदल गया एवं वायदे समाप्त हो गए। मिले हुए साधन का दुरुपयोग होने लगा। भौतिक सुख में लगे रहे। परोपकार एवं लोकहित की योजनाएं कही ही कही धरी रह गयी।
देवराज इन्द्र की परीक्षा में वे खोटे उतरे। उनकी सत्यता का आभास कहीं नहीं था। इन्द्रदेव ने पाँचों को दिए हुए साधन वापस ले लिये। अब पहले की सी कष्टमय स्तिथि में जब उन्हें पुनः रहना पड़ा तब समाज में आया की साधनों को यदि भगवान का दिया हुआ समझ कर सद्कार्यों में उपयोग करता रहे तो इन अनुदानों में निरन्तर वृद्धि होती है, यदि केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति करने में लगे रहे तो उनका अन्त साधन-हीनता ही रहती है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें