कृपण-कथा
कृपणता एक प्रकार की अनुदारता है। कृपण व्यक्ति से न तो दूसरे का हित होता है और न अपना ही। यहाँ पर कई कृपाणों (कंजूसों) की कथा संक्षेप में दी जा रही है।
एक कंजूस था, जो घी के डिब्बे को अच्छी प्रकार बाँधकर एक दीवार के साथ लटकाये रखता और भोजन करते समय उसकी ओर देख-देखकर सुखी रोटी और बिना घी की सब्ज़ी खा लेता था। वह व्यक्ति एक दिन एक दूसरे कंजूस से मिला। दोनों अपनी-अपनी कृपणता की बातें करने लगे। घी वाले ने कहा, “मैंने दो वर्ष पूर्व एक लोटा घी ख़रीदा था, अभी तक उसका बहुत बड़ा भाग ज्यों-का-त्यों पड़ा है।”
दूसरे कंजूस ने पूछा, “तुम उसका प्रयोग कैसे करते हो?” पहला बोला, “भोजन करते समय उसकी ओर देख लेता हूँ। उसकी गंध सूंघ लेता हूँ।”
दूसरे ने कहा, “बहुत अपव्ययी हो तुम! अरे, घी रोटी के ऊपर भले ही मत लगाओ, हवा लगने से वह काम तो होता है। उसका रस तो सूखता है। हमारे घर में सात वर्ष पूर्व का एक पंखा है। मेरे दादाजी ने उसे ख़रीदा था। सारा घर उसका प्रयोग करता है। अभी तक वह ज्यों-का-त्यों है। बिलकुल वैसे जैसा सात वर्ष पूर्व था।”
पहले ने कहा, “यह कैसे हो सकता है? तुम सब जब सात वर्ष से उसका प्रयोग करते हो तब कुछ न कुछ तो वह घिसा ही होगा।”
दूसरे ने उत्तर दिया, “तुमने सबको अपने जैसे मूर्ख समझ लिया है? अरे, प्रयोग करने की विधि तो पूछो। हमने पंखे को एक संदूक में बंद कर रखा है। संदूक पर ताला लगा है। हमारे घर में जिस व्यक्ति को गर्मी लगती है वह उठता है, संदूक के इर्द-गिर्द चक्कर लगा लेता है, समझ लेता है की हवा आ गयी!”
एक तीसरा व्यक्ति भी वहां खड़ा था। वह बोला, “तुम इसे मितव्ययिता कहते हो? अरे, संदूक के इर्द-गिर्द बार बार चलोगे तो फ़र्श कितना घिस जाएगा?”
दूसरे ने पूछा, “फिर क्या करें?”
तीसरे ने उत्तर दिया, “जैसा हम करते हैं। हमारे पास भी एक पंखा है। रखा है संदूक में। संदूक में ताला लगा है। घर में जिसको गर्मी लगती है, वह संदूक के पास जाकर एक स्थान पर खड़ा होकर दाएँ-बाएँ हिलता है, उसे हवा लग जाती है।”
वहीँ पर एक चौथा कंजूस भी था। वह बोला, “तुम सब अपव्ययी हो। हमने पंखा कभी ख़रीदा ही नहीं। जब गर्मी लगती है, सड़क की पटरी की ओर एक मकान में लगे पंखे को देख लेते हैं, इसी से तस्सली हो जाती है।”
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