विषयासक्त इंद्रियाँ

एक नगर में एक बाबू रहता था, उसके दो औरतें थीं। वे दोनों ही बड़ी बलिष्ठ एवं लड़ाकू थीं। ईर्ष्या द्वेषवश आपस में झगड़ा टंटा किया करती थीं। बाबू दिनभर ऑफिस में काम करता। कभी-कभी ज्यादा काम होने के कारण वह  सायं बड़ी देर से घर पहुँचता था। इन औरतों को समझाते-समझाते वह तंग हो गया था। किसी भी प्रकार से शांति से नहीं रहती थीं। एक दिन वह बड़ी देर से घर पहुंचा। वहां उसने देखा कि दोनों का अखाड़ा खूब जमा हुआ है, एक दूसरे को मुफट गालियां दे रही हैं। एक औरत ऊपर रहती थी और एक नीचे। जब बाबू सीडी द्वारा ऊपर जाने लगा तो नीचे वाली औरत ने उसका पैर पकड़ लिया और गर्जना के साथ ताना देती हुई बोली, “तू ऊपर क्यों जाता है? इस घर में प्रथम में आई हूं, इसलिए मैं तेरे को कभी ऊपर राँड के पास नहीं जाने दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए।” जब ऊपर वाली औरत को मालूम हुआ की नीचे वाली मेरी सौत उसे ऊपर नहीं आने देती है, तब वह सौत को गालियां देते हुए उसके हाथ को ऊपर से पकड़ लिया और कहने लगी कि, “छोड़ इसके पैर को राँड! ऊपर आने दे, यह नीचे तेरे यहां नहीं रहेगा, तेरे फंदे से छूटने के लिए ही तो यह मुझको इस घर में लाया है।”

बाबू शुरू से ही दुर्बल था, घर की लड़ाई से और भी ज्यादा दुर्बल हो गया था; उस दिन ऑफिस में लगातार कई घंटे काम करते-करते बहुत ही थका-मांदा था। भूखा-प्यासा तो था ही। इसलिए उसमे पैर या हाथ छुड़ाने की ताकत ना थी। दोनों को अनुनय-विनय के साथ समझाता था, परंतु दोनों ने ही हट पकड़ ली थी। एक कहती थी कि मैं नहीं मानूंगी, पैर कभी नहीं छोडूंगी, तू अपनी ऊपर वाली को मना। ऊपर वाली कहती थी चाहे कुछ भी हो जाए, मैं ना तो इसका हाथ ही छोडूंगी, न नीचे ही रहने दूंगी। इसको ऊपर लेकर ही छोडूंगी!

इस प्रकार सारी रात्रि खींचातानी घमासान का युद्ध चलता रहा। बाबू रोता रहा परंतु उन निर्दयी औरतों को उसके रोने एवं कष्ट की कुछ भी परवाह नहीं थी। वह अपना-अपना हट पूरा करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ थीं। आसपास के पड़ोसी सब खा-पीकर सो गए थे, इसलिए वे भी छुड़ाने के लिए नहीं पहुंच सके। प्रातःकाल हुआ, पड़ोसी जब जागे तो इस बेचारे बाबू की पुकार सुनी, तब वे वहां पहुंच कर दोनों औरतों को धमका-फटकाकर बड़ी मुश्किल से उनको छुड़ाया। दैवयोग से उसके घर में उसी रात्रि को चोरी करने के लिए एक चोर भी आया हुआ था। वह घर के एक अंधेरे कोने में छिपा हुआ, यह तमाशा देख रहा था। वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कब यह मामला अब समाप्त हो और मैं अपना काम करूँ। परंतु चोर के दुर्भाग्य से खींचातानी का मामला जल्दी समाप्त नहीं हुआ, रात्रि पर्यन्त चलता रहा। और वह अपना काम न कर सका। प्रातः पड़ोसियों ने उसको भी कोने में छिपा हुआ देखा और पकड़ लिया। और चोर को पुलिस के हवाले कर दिया। जब थानेदार ने उससे पूछा तो उसने रात्रि की सारी कथा सच-सच बतला दी और कहा कि मैं चोरी करने गया था। परंतु रात्रि के उस कहल के कारण ही चोरी ना कर सका। उसने हंसते हुए थानेदार साहब से कहा कि, “साहब! मेरे इस अपराध का आप जो भी दण्ड देंगे, उसको मैं सहर्ष भोग लूँगा, परंतु आप उस बाबू का दण्ड मुझे ना दें। दो औरतों का आदमी मुझे मत बनाए। चोर की बात सुनकर थानेदार भी ठहाका मारकर हँस पड़ा।

इस दृष्टान्त का तात्पर्य यह है कि यह विषयासक्त-इंद्रियां भी उन झगड़ालु औरतों के समान हैं, और यह अपने स्वामी जीवात्मा को अनेक प्रकार के कष्ट देती रहती हैं। विषयों का मोह ही कष्ट का कारण है। मोहित-इंद्रियां दुख देती हैं। इसलिए जिसे दुख तथा निवृत्ति की तथा शाश्वत सुख की अभिलाषा है, वह विवेक वैराग्य द्वारा अपनी इंद्रियों को विषयों के मोह से मुक्त करें।

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