वास्तविक साथी

एक था युवक। नाम रामदास, जाति का गुसाई। एक गांव में अपने पिता के साथ रहता था। पिता मंदिर में पूजा करते थे। लोगों के घरों में मंत्र आदि भी पढ़ते थे। बेटा रामदास उन्हें देखता, पूजा-पाठ में उसकी रुचि भी थी, परंतु उस विद्या को प्राप्त ना कर सका। एक दिन आया जब रामदास के पिता का देहांत हो गया। माता पहले से ही चल बसी थीं। दूसरा कोई संबंधी था नहीं। पिता की मृत्यु के बाद रामदास के लिए यह संसार सूना हो गया।

कभी उसने अपने पिता से भगवान का नाम सुना था। दुखी अवस्था में उसने सोचा, “उसी भगवान से मिलूंगा जो सबका अपना है। परंतु भगवान से मिले कैसे? पाए कहां पर?” यह तो उसे पता नहीं था। एक महात्मा के पास पहुंचा उनसे प्रार्थना की, कहा, “मुझे भगवान का दर्शन करा दो, उससे मिला दो।” महात्मा बोले, “यह बहुत कठिन कार्य है, सरलता से होगा नहीं, इसके लिए बहुत परिश्रम करना होगा।” रामदास ने कहा, “मैं करूँगा परिश्रम।” महात्मा बोले, “बहुत अच्छी बात है। वह है कुटिया, उसमें बैठकर भगवान का नाम लिया कर। भोजन तुझे मिल जाएगा। खाने और सोने से अवकाश मिलते ही जप किया कर।” रामदास ने ऐसा करना प्रारंभ किया। परंतु प्रभु के लिए जो प्यार होना चाहिए, वह तो उसके पास नहीं था।

कुछ दिन वहां रहा, जप भी करता रहा। परंतु जब कुछ हुआ नहीं तो उसने सोचा यह महात्मा तो मुझे  ऐसे ही धोखा दे रहे हैं। यह वस्तुतः कोई विधि नहीं। शायद भगवान कुछ भी नहीं। इस प्रकार सोच कर एक दिन वह चुपके से उठा, कुटिया को छोड़कर अपने गांव में आ गया। गांव वाले कृपा करके खाना दे देते तो खा लेता, नहीं तो वृक्ष के नीचे ही बैठा रहता। उन्हीं दिनों उस गांव में एक जमींदार ने अपनी इच्छा पूरी होने पर एक बकरी दान देने का निश्चय किया। परंतु दान किसको दें, यह बात उनके समझ में नहीं आ रही थी। गांव वालों में से ही किसी ने सुझाव दिया, “अपना वह रामदास तो है, किसी महात्मा से शिक्षा लेकर भी आया है, उसी को यह बकरी दे दें।”

जमींदार ने रामदास को दान में बकरी दे दी। रामदास घास काट कर बकरी को खिलाता, नहलाता, उसका दूध पीता, उसे हर समय अपने साथ रखता। रात को उसके पास ही सो जाता। उसके जीवन में एक साथी की कमी थी, वह साथी उसे मिल गया। उसने बकरी का नाम ही साथ ही रख दिया; प्यार से वह उसे कहता, “आओ साथी, घास खाओ; आओ साथी, पानी पियो। आओ साथी, यहां छाया में बैठो, वहां धूप है।” बकरी को भी पता लग गया कि उसका नाम ‘साथी’ है। जब भी वह उसे साथी कह कर बुलाता, वह दौड़ी हुई उसके पास जाती। बकरी से उसे ऐसा प्यार हो गया कि उसके बिना वह एक क्षण भी नहीं रह सकता था। हर समय बकरी और रामदास एक साथ ही रहते। अब वह प्रसन्न था की कोई अपना मिल गया। प्रसन्न था की उसका साथी उसके पास है। परंतु दैवयोग से एक दिन वह बकरी पता नहीं कहां खो गई। रामदास ने उसको साथी-साथी कह कर पुकारा। वह आई नहीं। पागलों की भांति रामदास इधर से उधर और उधर से इधर दौड़ने लगा। “साथी, ओ मेरे साथी” कहकर पुकारने लगा। प्रत्येक व्यक्ति से पूछने लगा, “तुमने मेरे साथ ही को देखा है?” किसी ने पूछा, “कौन साथी?” रामदास बोला, “मेरी बकरी। लाल रंग की है, इतनी सी।” उस व्यक्ति ने कहा, “ऐसी एक बकरी गांव के बाहर खेतों में भागी जाती मैंने देखी थी।” रामदास ‘साथी-साथी’ पुकारता हुआ बताए हुए स्थान की ओर भागा। वहां भी बकरी नहीं मिली तो दूसरे गांव की ओर भागा। दौड़ता जाता, पुकारता जाता, “साथी, ओ साथी, तुम कहां हो?” तभी मार्ग में वे महात्मा मिले, जिन्होंने उसे भगवान के नाम का जप करने के लिए कहा था। आश्चर्य से उन्होंने पूछा, “अरे रामदास! तुझको क्या हुआ है? क्या अवस्था बना रखी है? किस को ढूँढता है?” रामदास ने रोते हुए कहा, “मेरा साथी खो गया है गुरुजी! मैं उसके बिना पागल होता जा रहा हूं। मुझे कुछ नहीं सूझता। आपने कहीं मेरे साथी को देखा है?” महात्मा जी ने पूछा, “परंतु तेरा साथी है कौन?” रामदास ने रोते हुए कहा, “एक बकरी है! लाल रंग की बकरी।” महात्मा ने हंसते हुए कहा, “अरे, तू बकरी को अपना साथी बना बैठा? रामदास के स्थान पर बकरीदास बन गया? अरे पागल तेरा वास्तविक साथी तो तेरे अंदर है जो कभी तेरा साथ नहीं छोड़ता। जिस प्रकार तू बकरी के लिए बेचैन है, उसी प्रकार यदि उस सच्चे साथी के लिए बेचैन होता तो तेरे लिए कल्याण के द्वार खुल जाते।”

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