आत्मा मुख्य है, शरीर नहीं

एक था घुड़सवार। पहुंच गया किसी गांव में अपने एक मित्र के पास। मित्र ने उसे देखा तो अपने कमरे में ले गया। उसके घोड़े को बाहर आँगन में बाँधा। यात्री को कमरे में बैठा कर बाहर से बंद कर दिया और घोड़े के पास पहुंच कर उसे पानी पिलाया। घास और दाना खिलाया। तब उसे मालिश करने लगा। खुरैरा लेकर उसकी सेवा करने लगा; उसकी टांगें भी दबाने लगा कि बेचारा दूर से आया है, थक गया होगा। स्वयं वह व्यक्ति भांग पीता था। निश्चित समय पर भांग पिता और जुट जाता घोड़े की सेवा में। घोड़े को गर्मी न लगे, इसलिए उसको पंखे से हवा करता। उसका रंग खराब ना हो इसलिए उसे खूब ज़ोर से मल-मलकर नहलाता। व दुर्बल ना हो जाए, इस ,लिए उसे अच्छे से अच्छा खाना खिलाता। इस प्रकार तीन दिन हो गए। बेचारा यात्री कमरे में बंद खिड़की से देखता की घोड़े की बहुत सेवा हो रही है, उसे खूब संवारा जा रहा है। यात्री आश्चर्यचकित था कि इस व्यक्ति को हो क्या गया है? अतिथि मैं हूं, मित्र मैं हूं, किंतु मेरी परवाह न करके इस घोड़े की सेवा में अहर्निशि लगा हुआ है। तीन दिन व्यतीत हो गए तो एक साधू उधर से निकला। उसने उस व्यक्ति को घोड़े की सेवा करते देखा! बोला, “खूब सेवा करते हो भाई! तुम्हारा घोड़ा है?” उस व्यक्ति ने कहा, “नहीं बाबा! मेरे मित्र का है।”

साधु ने पूछा, “मित्र कहां है?” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “उसे मैंने कमरे में बंद कर दिया है।” साधु ने आश्चर्य से कहा, “कमरे में बंद कर दिया है? उसे कुछ खाने पीने को नहीं दिया?” उसने कहा, “नहीं मैं घोड़े की सेवा कर रहा हूं।”

साधु ने कहा, “अरे पगले, क्या करता है? जिसका घोड़ा है उसका भी तो ख्याल कर। उसे तू ने भूखा-प्यासा बैठा रखा है घोड़े को खुरैरा किये जाता है। खोल दरवाज़ा, उसे देख। शायद वह भूख और प्यास से बेहोश हो गया होगा।”

उस व्यक्ति ने लापरवाही से उत्तर दिया, “आप देखते, मैं घोड़े की सेवा कर रहा हूं? मेरे मित्र का घोड़ा है, इनकी सेवा में दिनभर लगा रहता हूं। दूसरा काम करने का मुझे अवकाश कहां?”

आप कहेंगे, वह व्यक्ति भांग पिए हुए था इसलिए उसने ऐसी बात कही। परंतु हम क्या कर रहे हैं? हम भी तो उसी प्रकार का व्यवहार करते जा रहे हैं। घुड़सवार को हमने अंदर बंद कर दिया है, उसकी चिंता नहीं, उसके खाने-पीने का ध्यान नहीं, उस घोड़े को खुरैरा किए जाते हैं। इसकी सेवा से ही हमें अवकाश नहीं मिलता। विचारपूर्वक देखिए, कितनी कंघियाँ आप उसके बालों को सवारने में तोड़ चुके हैं? साबुन की कितनी टिकियाँ आप खर्च कर चुके हैं? कितने टन तेल आप इसको मल चुके हैं? कितना अन्न इसे खिला चुके हैं?  कितना पानी, कितना शर्बत, लस्सी और दूध इसको पिला चुके हैं? कितने फल उसके पेट में झोंक चुके हैं? प्रातः से सायं तक और सायंकाल से प्रातः तक कोई दूसरी चिंता नहीं, इस घोड़े की सेवा हम किए जाते हैं, और घुड़सवार अंदर भूखा-प्यासा बैठा है। हम यह भी नहीं देखते कि वह होश में है या बेहोश हो गया। यदि वह अपनी क्षीण-सी आवाज़ में पुकारता भी है तो हम उसकी आवाज़ ही नहीं सुन पाते। कितना विडंबना-पूर्ण है। हम कहते हैं कि वह पागल है, उसने भांग पी रखी थी, तो अपने आप को क्या कहेंगे?

मैं यह नहीं कहता कि इस शरीर की रक्षा ना करो, अवश्य करो मेरे भाई! इस घोड़े को पालो अवश्य। यह घृणा करने की वस्तु नहीं, पालने और संभालने की वस्तु है। इसे संभालकर रखो अवश्य। निर्बल ना बना दो इसे, इसकी ओर से लापरवाही न करो। यह सात ऋषियों की तपोभूमि है। यह देवताओं का यज्ञ-स्थान है। परंतु केवल यह शरीर ही तो नहीं है। उसके भीतर बैठा हुई आत्मा भी है। उसका भी ध्यान रखो।

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