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जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संयम के कारण

बात उन दिनों की है जब नेपोलियन छात्रावस्था में था। उन दिनों अक्लोनी नामक स्थान में उन्हें एक नाई के घर में रहना पड़ा था। नेपोलियन बहुत सुंदर एवं सुकुमार थे, उनकी आकृति में आकर्षण था। नाई की स्त्री उन पर मुक्त हो गई थी और नेपोलियन को अपनी और आकर्षित करने का प्रयत्न निरंतर करती रहती थी। लेकिन नेपोलियन को तो अध्ययन से ही अवकाश नहीं मिलता था। वह स्त्री जब भी उनसे हँसने-बोलने का प्रयास करती, तब तब उन्हें किसी ना किसी पुस्तक में निमग्न देखती। इस कारण स्त्री की इच्छा की पूर्ति नहीं हुई। समय बीता। वही नेपोलियन देश का सेनापति चुना गया। सेनापति होने के बाद उसी नाई के यहां जाने का एक बार फिर अवसर आया। तब वे काफी बड़े हो गए थे, पहचाने भी नहीं जा सकते थे। दुकान पर नाई की स्त्री बैठी थी। नेपोलियन उसके पास जाकर पूछा, “क्या तुम को स्मरण है कि कभी तुम्हारे यहां बोनापार्ट नाम का कोई युवक कुछ दिनों के लिए रहा था?” नाई  की स्त्री झुंझलाकर बोली, “बस… बस रहने दो महोदय। वैसे नीरस व्यक्ति का मैं नाम लेना भी पसंद नहीं करती। किसी से मीठी बात करना तो उसने सीखा ही नहीं था। यहां तक कि उसको नाचना-गाना भी नह

सादगी

रामशास्त्री, पेशवा माधवराव के गुरु थे, साथ ही वह पेशवा के मंत्री और राज्य के न्यायाधीश भी थे। फिर भी उनका रहन-सहन और पहनावा बड़ा सादा और मामूली था। एक बार उनकी पत्नी किसी पर्व के अवसर पर राजभवन में गई। उनकी अत्यंत साधारण वेशभूषा देखकर रानी चकित रह गई। रानी ने उन्हें कीमती कपड़े और रतजड़ित आभूषण पहनाये, फिर राजसी पालकी में उन्हें विदा किया। पालकी रामशास्त्री के घर पहुंची। कहारों ने द्वार खटखटाया। द्वार खुला और फिर तुरंत बंद हो गया। कहार बोले, “शास्त्री जी आपकी धर्म पत्नी आई हैं।” शास्त्री जी बोले, “मेरी पत्नी ऐसे कीमती कपड़े और गहने नहीं पहन सकती। वस्त्राभूषण से सजी हुई यह देवी कोई और ही है, तुम लोग भूल से यहां आ गए हो।” शास्त्री जी की पत्नी अपने पति के स्वभाव को खूब पहचानती थी। उन्होंने कहारों को राजभवन लौट चलने को कहा। रानी-वास में पहुँचकर उन्होंने रानी से कहा, “आपके इन वस्त्र और आभूषणों ने तो मेरे घर का द्वार ही मेरे लिए बंद करा दिया है।” सब कपड़े-गहने उतार कर और अपने साधारण कपड़े पहनकर शास्त्री जी की पत्नी पैदल ही घर लौटी। इस बार रामशास्त्री सजल, गर्वोन्नत नेत्रों स

अच्छी फसल

जर्मनी की सेना का कोई उच्चाधिकारी किसी युद्ध के समय अपने शिविर से कुछ सैनिकों को साथ लेकर घोड़ों के लिए खास एकत्रित करने के लिए चले। समीप में एक गांव के किसान को उन्होंने पकड़ा और कहा, “चल कर बताओ कि इस गांव में किस खेत में अच्छी फसल है।” विवश होकर किसान उन सैनिकों के साथ चल पड़ा। खेत लह-लहा रहे थे। बहुत उत्तम फसल थी। सैनिक चाहते थे कि उन खेतों की फसल काट लें, किंतु किसान बार-बार यही कहता चाहता था, “कुछ और आगे चलिए, आगे बहुत अच्छी फसल है।” धीरे-धीरे किसान सैनिकों को लगभग गांव की सीमा के खेतों तक ले गया। वहां उसने एक खेत बतलाया। सैनिकों ने उस खेत से फसल काट कर गठ्ठे बांधे और घोड़ों पर रख लिए। सैनिक अधिकारी ने क्रोधित होकर किसान को डांटा, “तू व्यर्थ ही हमें इतनी दूर ले आया। इससे अच्छी फसल तो पास के खेतों में ही थी।” किसान ने कहा, “मैं जानता था कि आप लोग खेत के स्वामी को फसल का मूल्य नहीं देंगे। इतना समझते हुए मैं किसी दूसरे का खेत बतला कर उसकी हानि कैसे करा सकता था? यह मेरा अपना खेत है। ये तो आप भी मानेंगे कि मेरे लिए तो इसकी फसल सबसे अच्छी फसल है।” सैनिक अधिकारी लज्जित हो गय

आपसी फूट

एक व्याध ने पक्षियों को फँसाने के लिए अपना जाल बिछाया। जाल में दो पक्षी फंसे, किंतु उन पक्षियों ने झटपट सलाह की और जाल को लेकर उड़ने लगे। व्याध को यह देख कर बड़ा दुख हुआ। वह उन पक्षियों के पीछे भूमि पर दौड़ने लगा। कोई ऋषि अपने आश्रम में बैठे यह दृश्य देख रहे थे। उन्होंने व्याध को समीप बुलाकर पूछा, “तुम व्यर्थ क्यों दौड़ रहे हो? पक्षी तो जाल लेकर आकाश में उड़ रहे हैं।” व्याध बोला, “भगवान, अभी इन पक्षियों में मित्रता है। वे परस्पर मेल करके एक दिशा में उड़ रहे हैं। इसी से वे  मेरा चाल लिए जा रहे हैं। परंतु कुछ देर में इन में झगड़ा हो सकता है। मैं उसी समय की प्रतीक्षा में इनके पीछे दौड़ रहा हूं। परस्पर झगड़ा कर जब वे गिर पड़ेंगे, तब मैं उन्हे पकड़ लूँगा।” व्याध की बात ठीक निकली। थोड़ी देर उड़ते-उड़ते जब पक्षी थक, तब उनमे इस बात को लेकर विरोध हो गया कि उन्हें कहा ठहरना चाहिए। विरोध होते ही उनके उड़ने की दिशा और पंखों की गति समान नहीं रह गई। इसका फल यह हुआ कि वह उस जाल को संभाल नहीं रख सके। जाल  के भार से लड़खड़ाकर स्वयं भी गिरने लगे और एक बार गिरना प्रारंभ होते ही जाल में उलझ गए। अ

विषयासक्त इंद्रियाँ

एक नगर में एक बाबू रहता था, उसके दो औरतें थीं। वे दोनों ही बड़ी बलिष्ठ एवं लड़ाकू थीं। ईर्ष्या द्वेषवश आपस में झगड़ा टंटा किया करती थीं। बाबू दिनभर ऑफिस में काम करता। कभी-कभी ज्यादा काम होने के कारण वह  सायं बड़ी देर से घर पहुँचता था। इन औरतों को समझाते-समझाते वह तंग हो गया था। किसी भी प्रकार से शांति से नहीं रहती थीं। एक दिन वह बड़ी देर से घर पहुंचा। वहां उसने देखा कि दोनों का अखाड़ा खूब जमा हुआ है, एक दूसरे को मुफट गालियां दे रही हैं। एक औरत ऊपर रहती थी और एक नीचे। जब बाबू सीडी द्वारा ऊपर जाने लगा तो नीचे वाली औरत ने उसका पैर पकड़ लिया और गर्जना के साथ ताना देती हुई बोली, “तू ऊपर क्यों जाता है? इस घर में प्रथम में आई हूं, इसलिए मैं तेरे को कभी ऊपर राँड के पास नहीं जाने दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए।” जब ऊपर वाली औरत को मालूम हुआ की नीचे वाली मेरी सौत उसे ऊपर नहीं आने देती है, तब वह सौत को गालियां देते हुए उसके हाथ को ऊपर से पकड़ लिया और कहने लगी कि, “छोड़ इसके पैर को राँड! ऊपर आने दे, यह नीचे तेरे यहां नहीं रहेगा, तेरे फंदे से छूटने के लिए ही तो यह मुझको इस घर में लाया है।” बाबू शुर

महाचाण्डाल

गंगा के किनारे एक साधू अपनी कुटिया बनाकर रहते थे। एक दिन उन्होंने अपने कपड़े धोए। धूप अच्छी थी, वहां गंगा के किनारे रेत पर सुखाने के लिए डाल दिए। तब स्वयं नहां-धोकर अपनी कुटिया में जाकर बैठ गए। तभी वहां एक चाण्डाल आया। उसे भी गर्मी लग रही थी। उसने सोचा, गंगा जी के शीतल जल में स्नान कर लूं। स्नान करने के पश्चात बाहर निकला तो सोचा कपड़े मैले हो गए हैं, इन्हें भी धो लूँ। बस कपड़े धोने लगा। कपड़े धोने की आवाज़ कुटिया में पहुंची तो साधु ने सोचा कि कपड़े कौन धोता है? बाहर आकर देखा तो वहां एक चाण्डाल कपड़े धो रहा था। यह भी देखा कि उसके कपड़ों से उड़ने वाले छींटे साधु के सूखे हुए कपड़ों पर गिर रहे हैं। बस फिर क्या था, चढ़ गया क्रोध। दौड़ते हुए वह साधु चाण्डाल के पास पहुंचे और गालियां देते हुए बोले, “तू अंधा है? चाण्डाल होकर यहां कपड़े धोता है? तेरे अपवित्र छींटों ने मेरे कपड़ों को अपवित्र कर दिया।” आगे चढ़कर दो, तीन, चार चपत उन्होंने चाण्डाल के मुंह पर लगा दी। चाण्डाल हाथ जोड़कर खड़ा रहा। साधु महाराज चिल्लाकर बोले, “फिर मत आना इस स्थान पर।” साधु महाराज थे बूढ़े और दुर्बल, चाण्डाल था हृष्ट

वास्तविक साथी

एक था युवक। नाम रामदास, जाति का गुसाई। एक गांव में अपने पिता के साथ रहता था। पिता मंदिर में पूजा करते थे। लोगों के घरों में मंत्र आदि भी पढ़ते थे। बेटा रामदास उन्हें देखता, पूजा-पाठ में उसकी रुचि भी थी, परंतु उस विद्या को प्राप्त ना कर सका। एक दिन आया जब रामदास के पिता का देहांत हो गया। माता पहले से ही चल बसी थीं। दूसरा कोई संबंधी था नहीं। पिता की मृत्यु के बाद रामदास के लिए यह संसार सूना हो गया। कभी उसने अपने पिता से भगवान का नाम सुना था। दुखी अवस्था में उसने सोचा, “उसी भगवान से मिलूंगा जो सबका अपना है। परंतु भगवान से मिले कैसे? पाए कहां पर?” यह तो उसे पता नहीं था। एक महात्मा के पास पहुंचा उनसे प्रार्थना की, कहा, “मुझे भगवान का दर्शन करा दो, उससे मिला दो।” महात्मा बोले, “यह बहुत कठिन कार्य है, सरलता से होगा नहीं, इसके लिए बहुत परिश्रम करना होगा।” रामदास ने कहा, “मैं करूँगा परिश्रम।” महात्मा बोले, “बहुत अच्छी बात है। वह है कुटिया, उसमें बैठकर भगवान का नाम लिया कर। भोजन तुझे मिल जाएगा। खाने और सोने से अवकाश मिलते ही जप किया कर।” रामदास ने ऐसा करना प्रारंभ किया। परंतु प्रभु के लिए ज

आत्मा मुख्य है, शरीर नहीं

एक था घुड़सवार। पहुंच गया किसी गांव में अपने एक मित्र के पास। मित्र ने उसे देखा तो अपने कमरे में ले गया। उसके घोड़े को बाहर आँगन में बाँधा। यात्री को कमरे में बैठा कर बाहर से बंद कर दिया और घोड़े के पास पहुंच कर उसे पानी पिलाया। घास और दाना खिलाया। तब उसे मालिश करने लगा। खुरैरा लेकर उसकी सेवा करने लगा; उसकी टांगें भी दबाने लगा कि बेचारा दूर से आया है, थक गया होगा। स्वयं वह व्यक्ति भांग पीता था। निश्चित समय पर भांग पिता और जुट जाता घोड़े की सेवा में। घोड़े को गर्मी न लगे, इसलिए उसको पंखे से हवा करता। उसका रंग खराब ना हो इसलिए उसे खूब ज़ोर से मल-मलकर नहलाता। व दुर्बल ना हो जाए, इस ,लिए उसे अच्छे से अच्छा खाना खिलाता। इस प्रकार तीन दिन हो गए। बेचारा यात्री कमरे में बंद खिड़की से देखता की घोड़े की बहुत सेवा हो रही है, उसे खूब संवारा जा रहा है। यात्री आश्चर्यचकित था कि इस व्यक्ति को हो क्या गया है? अतिथि मैं हूं, मित्र मैं हूं, किंतु मेरी परवाह न करके इस घोड़े की सेवा में अहर्निशि लगा हुआ है। तीन दिन व्यतीत हो गए तो एक साधू उधर से निकला। उसने उस व्यक्ति को घोड़े की सेवा करते देखा! बोला, “ख

निकम्मापन

दो व्यक्ति अफ़ीम खाकर एक पेड़ के नीचे बैठे थे। वृक्ष था बेर का। शाखा से एक बेर गिरा। एक अफीमची की छाती पर आ पड़ा। परंतु वह अफीमची ही क्या जो हाथ-पाँव हिलाए। रातभर बेर उसकी छाती पर पड़ा रहा और वह प्रतीक्षा करता रहा कि दूसरे अफीमची उठे और बेर को उसके मुंह में डाल दे; परंतु दूसरा भी तो अफीमची था। वह भी रात भर लेटा रहा, उठा नहीं। प्रातः एक व्यक्ति उधर से निकला। उसने ध्यान से उन दोनों को देखा। पहले समझा, शायद मर गए हैं, मिलते-डुलते नहीं। शायद रात में किसी सर्प अथवा विषैले कीड़े ने काट लिया है और दोनों के प्राण-पखेरु उड़ गए हैं। परंतु पास गया तो देखा कि दोनों की आँखें खुली हैं। दोनों टुकुर-टुकुर देख रहे हैं। आश्चर्य से उसने पूछा, “तुम्हें क्या हुआ है?” वह पैर वाले के पास खड़ा था। वीर वाले ने धीमी आवाज़, “यह बेर उठा कर मेरे मुंह में डाल दो।” उस व्यक्ति ने  बेर उठाया, उसके मुंह में डाल दिया, बोला, “ यह बेर क्या अभी गिरा है?” अफीमची ने कहा, “नहीं भाई! रात से  पड़ा है!” उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा, “रात से यह पड़ा है, तुम्हारे दोनों हाथ विद्यमान हैं, तुमने इसे उठाया क्यों नहीं? बहु

गुरु की परख

संत दादू चले गए एक नए स्थान में। नगर से दूर जंगल में रहने लगे। ज्यों-ज्यों लोगों को पता लगा, त्यों-त्यों वे जंगल में आकर ही प्रभु भक्ति का अमृत पीने लगे। शहर के कोतवाल ने भी संत दादू के संबंध की बातें सुनी। उनके मन में भी आया कि चलकर उस महात्मा के दर्शन करूँ, जिसकी प्रसंशा कितने ही लोग करते हैं। अपने घोड़े पर चढ़कर कोतवाल जंगल की ओर चल दिए। काफी दूर जाने पर भी संत दादू का पता नहीं लगा। हाँ, एक व्यक्ति अवश्य दिखाई दिया दुबला पतला शरीर, केवल एक लंगोटी पहने, वह झाड़ियों को साफ कर रहा था। मार्ग की झाड़ियों को काटता और बाहर फेक देता, ताकि मार्ग साफ हो जाए। कोतवाल ने उसके पास जाकर पूछा, “अरे ओ! पता है कि संत दादू कहाँ रहते हैं?” उस व्यक्ति ने कोतवाल की ओर देखा परंतु बोला नहीं। कोतवाल ने समझा, यह  बहरा है, चिल्लाकर बोले, “अरे मूर्ख, मैं पूछता हूं कि दादू कहां रहता है?” इस बार उस व्यक्ति ने कोतवाल की तरफ देखा भी नहीं, अपना काम करता रहा। कोतवाल को क्रोध आ गया। जिस चाबुक से वह घोड़े चलाता आया था, उसी से उस व्यक्ति को मारने लगा। चाबुक से उस व्यक्ति के शरीर पर नीले-नीले निशान पड़ गए। इत

देवता और असुर

देवताओं और असुरों की एक मनोरंजक कहानी आपको सुनाता हूं। एक धनी सज्जन ने एक बार बहुत से विद्वानों को भोजन का निमंत्रण दिया। अतिथियों में देवता भी थे और असुर भी। जब अतिथि एकत्रित हुए तो असुरों ने गृहपति से कहा, “आप लोग सदा हमारे साथ अन्याय करते हैं, अब हम अन्याय सहन नहीं करेंगे।” गृहपति ने पूछा, “कौन सा अन्याय होता है?” असुर बोले, “विद्या में क्या, ज्ञान में, विज्ञान में, शक्ति में, हर बात में हम देवताओं से आगे हैं। इतना होते हुए भी जहां कहीं भी हम दोनों को बुलाया जाता, वहां पहले देवताओं को भोजन मिलता है, बाद में हमको। यह अन्याय सहन करने योग्य नहीं है। आप देवताओं के साथ हमारा शास्त्रार्थ कराइए किसी भी विषय पर, यदि हम जीत जाएँ, तो इस अन्याय को समाप्त कीजिए। अथवा हम इस अन्याय को चलने नहीं देंगे।” गृहपति ने कहा, “आप क्रोध ना कीजिए, पहले आप ही भोजन करें, देवता पीछे खा लेंगे; परंतु एक शर्त आपको माननी होगी।” असुरों ने पूछा, “ क्या शर्त है?” गृहपति ने कहा, “शर्त यह है कि आपके दोनों हाथों के साथ कोई तीन-तीन फ़ीट की लकड़ियाँ बांध दी जाएंगी। एक लकड़ी दायें हाथ के साथ, दूसरी बायें हाथ क

पश्चाताप के आँसू

मारवाड़ जोधपुर के अधिपति जसवंत सिंह के स्वर्गवास के बाद दिल्ली नरेश औरंगज़ेब ने विधवा महारानी के पुत्र अजीत सिंह को उत्तराधिकारी मानने से अस्वीकार कर दिया। उसने जसवंत सिंह के दीवान के पुत्र दुर्गादास को स्वर्ण मुद्राओं का लालच देकर महारानी एवं अल्पवयस्क राजकुमार की सुरक्षा से विरत करना चाहा। पर दुर्गादास ने स्वामीभक्ति के आगे स्वर्ण मुद्रा के लालच को ठुकरा दिया। जब तक राजकुमार राजकार्य संभालने के योग्य न हो गए तब तक उनको इधर-उधर छिपाकर उनकी प्राण रक्षा करते रहे। एवं दुर्गा दास की स्वामीभक्ति एवं वीरता के कारण ही अजीत सिंह एक दिन मारवाड़ के अधिपति बनने के सफल हुए। किसी गलत धारणा के कारण अजीत सिंह दुर्गादास से असंतुष्ट हो गए। मुसाहिबों के बहकावे में आकर उन्होंने दुर्गादास को बहुत कड़ा दंड दिया और कहा - “आपने बचपन में मुझे बड़ा कष्ट दिया है। मेरे अभिभावक बने रहकर आपने मेरी ताड़ना की है, आप संभवत नहीं जानते थे कि मैं एक दिन मारवाड़ का अधिपति बनूंगा। मैं आप को कठोर दण्ड देता हूं। आप एक मिट्टी का टूटा-फूटा बर्तन लेकर जोधपुर की गलियों में भिक्षाटन कीजिए। बस इतना ही दण्ड आपके लिए पर्याप्त

गाँधी जी और प्रार्थना

महापुरुषों की जयंतियाँ मनाने का प्रत्यक्ष फल होता है। इस अवसर पर हम उनके गुणों का चिंतन एवं उनकी चर्चा करते हैं। यह निश्चय है कि गुणों का चिंतन करने से यह गुण अपने में यत्किंचित आ जाते हैं। ऐसे ही किसी के अवगुणों की चर्चा की जाए तो अवगुण भी कुछ अंशों में जीवन को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। पूज्य बापू महात्मा गांधी के गुणों का कोई अंत नहीं है। आज इस अवसर पर हम उनके गुणों की यत्किंचित चर्चा कर कुछ मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास इस छोटे से लेख में करना चाहेंगे। उनके जीवन में घटी छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से यह प्रयास सरलता से संभव हो सकता है। एक सज्जन गाँधीजी के प्रति द्वेष भाव रखता था। अपना रोष प्रकट करने के लिए उक्त सज्जन दो-तीन पृष्ठों में अपनी संकुचित दृष्टि को प्रतिफलित करते हुए बापू की अनेक बुराइयों का संकलन कर उनके बारे में अनेक खोटी-खरी बातें लिखकर स्वयं ही उनके पास ले गया। लिखा हुआ कागज़ गांधी जी को देकर उनके प्रतिक्रिया जाने के लिए वहां उपविष्ट हो गया। गाँधीजी ने उनके लिखे हुए विवरण को ध्यान से आद्योपांत पढ़ा। पढ़ने के बाद इस पत्र में लगा हुआ और आलपिन निकालकर पास मे

न्याय

वह काशी नरेश कि रानी थी, नाम था करुणा। नाम करना ज़रूर था, लेकिन व्यवहार था उसके विपरीत। उन दिनों जब महारानी गंगा किनारे स्नान करने जाया करती थी, तो उस स्थान पर किसी को भी नहीं रहने दिया जाता था। वहां झोपड़ियों में रहने वालों को उस स्थान को रिक्त कर देना पड़ता था। केवल महारानी एवं उनकी दासियाँ ही गंगा किनारे स्नान हेतु रहती थीं। प्रातःकाल का समय वह भी माघ का महीना था। स्नान करने के पश्चात महारानी शीत में कांपने लगीं। आसपास कहीं ऐसी व्यवस्था नहीं थी जिससे महारानी अग्नि प्रज्जवलित कर शीत से राहत पा सकती। अतः उन्होंने एक दासी को आज्ञा दी कि उन रिक्त झोपड़ी में से एक झोपड़ी में आग लगा दो ताकि सर्दी से राहत पाने के लिए वे हाथ-पैर सेंक सके। दासी बोली - “महारानी! इन झोपड़ी में या तो कोई निर्धन परिवार के लोग रहते होंगे, अथवा कोई साधु संत। झोपड़े को जला देने से उनके रहने की क्या व्यवस्था होगी? वे बेचारे कहां जाएंगे। लेकिन रानी तो राज महल में रहती थी, उन्हें गरीबों के कष्ट का भला क्या अनुभव हो सकता था। उनका स्वभाव तो आज्ञा-पालन कराने का बन गया था। अतः उन्होंने दूसरी दासी से यह कहते हुए

मानव लक्ष्य

अस्वस्थ पिता ने अपने छोटे पुत्र को पैसे दिए एवं डॉक्टर की बताई हुई दवा लाने के लिए बाज़ार भेजा। वह लड़का उछलते-कूदते घर से निकला और बाज़ार की ओर चल दिया। थोड़ी दूर ही गया होगा कि रास्ते में एक जगह भीड़ का मजमा देखा,  जो गोलाकार में खड़े होकर कोई तमाशा देख रहा था। लड़के का आकर्षण उस भीड़ की तरफ हुआ और अंदर घुसकर देखा कि एक मदारी बंदर एवं बंदरिया को नचा रहा है, लोग उधर उस तमाशा को देखने में मशगूल हैं। दवा लाने की बात भूल कर वह लड़का भी तमाशा देखने लगा। बचपन में सभी इस खेल को देखते रहे होंगे। मदारी बंदरिया को कहता है, अरी,  तू इस बंदर के साथ ससुराल जा,  तेरी इस के साथ शादी हुई है। बंदरिया सर हिलाकर अस्वीकार कर देती है। आज से ५०-६० वर्ष पूर्व भी बंदरों का खेल मदारी इस तरह दिखाता रहा है, अब भी वैसे ही दिखाता रहता है। उस तरीके में कोई परिवर्तन नहीं। तो वह लड़का भूल गया कि मैं तो दवा  लाने के लिए निकला था। जब खेल समाप्त हुआ तो आगे बढ़ा। आगे एक रीछवाला रीछ नचा रहा था।  कुछ देर उसे देखता रहा। खेल तो हो उसका अंत तो होता ही नहीं है। इस तरह रीछ का खेल भी समाप्त हुआ। अब उसने अपने लक्ष्य की य

प्रेमपात्र

श्री रामानुजाचार्य के जीवन में घटी एक घटना का वर्णन आता है। रंगदास नामक एक सेठ था जो एक वेश्या पर आसक्त था।  एक दिन रंगदास उस वेश्या के साथ प्रभु श्री रंगनाथजी के मंदिर  के सामने से जा रहा थे। वेश्या आगे-आगे मस्ती से चली जा रही थी, जब सेठ उस वेश्या के सर पर छाता तने हुए पीछे-पीछे सेवक की तरह चल रहा था।  ठीक उसी समय रामानुजाचार्य जी मंदिर से बाहर निकल रहे थे। उन्होंने इस दयनीय दृश्य को देखा। सेठ को भी जानते थे। उनकी वेश्या में इतनी आसक्ति देखकर रामानुजाचार्य जी को दुख हुआ। उन पर दया का भाव आया एवं उनके जीवन को सही दिशा देने का निश्चय किया। रास्ते पर जाकर वे सेठ रंगदास से मिले एवं बोले कि वेश्या में आपका इतना प्रेम देखकर मुझे बड़ा आनंद मिल रहा है। यह निश्चय है कि आप इनके सौंदर्य के कारण ही इनमें आसक्त होकर प्रेम करते हैं।  मेरे प्रभु श्री रंगनाथजी इतने अधिक सुंदर हैं कि उनकी सुंदरता की तुलना इस पृथ्वी के किसी भी प्राणी से नहीं हो सकती। यदि आप मेरे प्रभु से प्रेम करने लग जायें तो आप का कल्याण हो जाएगा। प्रेम करने योग्य तो केवल परमात्मा ही हैं।  इतना कहकर रामानुजाचार्य  जी ने रंगदास को

दान की सार्थकता

वीरभद्र अपनी दान-वीरता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे।  लेकिन दान के कारण व राज्य परिवार की सुख-सुविधाओं के लिए पर्याप्त धन खर्च होता रहा एवं धीरे-धीरे राजकोष खाली हो गया। फलस्वरूप तरह-तरह के नए कर प्रजाओं पर लगाए गए। प्रजा भी एक और जहां उनकी दान-वीरता का गुण गाया करती थी, दूसरी और अत्यंत कर भार के विरोध से अपना असन्तोष भी प्रकट करती थी।  राज्य की अस्त-व्यस्त स्थिति का लाभ उठाकर पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर वीरभद्र के राज्य पर कब्ज़ा कर सम्राट को एवं रानी को बंदी बना लिया, लेकिन बाद में वे दोनों बंदीगृह से किसी प्रकार भाग निकले। उनके पास कोई साधन ना होने से जंगलों में भटकने लगे। रानी ने एक प्रस्ताव रखा कि सेमरगढ़ नगर का एक सेठ पुण्य खरीदता है, क्यों ना उसके पास जाकर अपना पुण्य का कुछ अंश बेज दिया जाए।  इसमें उदरपूर्ति की व्यवस्था तो कम से कम हो सकती है।  विचार विमर्श के बाद ऐसा ही करना निश्चित हुआ। गन्तव्य स्थान दूर था, रास्ते में पति-पत्नी मज़दूरी कर-कर अपना निर्वाह करते चले रहे थे।  एक बार कठिनाई से मिली मज़दूरी में चार रोटी जितने आटे की व्यवस्था हो सकी। वे रोटी पाकर प्रथम ग्रास लेने ही जा

वायदे वायदों के लिए है

कवि सम्मलेन, मानस सम्मलेन आदि अनके प्रकार के सम्मलेन होते रहते हैं। लेकिन यह सम्मलेन अपने में विचित्रता लिए हुए था। यह सम्मलेन पाँच असमर्थ एवं अपंग लोगों का था। प्रथम सदस्य अंधे व्यक्ति ने सम्मलेन का प्रारम्भ करते हुए कहा, “यदि मेरी आँखें होती तो जहाँ बुराई देखता उसका सुधार करने का प्रयास करता एवं अच्छा ही अच्छा देखता।” दूसरा सदस्य जो लँगड़ा था, उसने प्रथम का समर्थन करते हुए अपनी राय दी “बात सही है, यदि मेरे भी पैर होते तो मैं दौड़-दौड़कर अपंगों की मदद करता। तीसरा जो दोनों अंगों से ठीक था, लेकिन निर्धन था, उसने अपनी समस्या बताते हुए कहा, “यदि मेरे पास धन होता तो, मैं सारा धन परोपकार एवं जनहित में लगाता।” चौथा निरक्षर मूर्ख था, उसने भी अपनी दिक्कत बताई, “मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, अन्यथा मैं देश में अशिक्षता को मिटाने में अपना समय लगाता।” अन्तिम सदस्य जो शरीर से अस्वस्थ एवं क्षीणकाय था, उनकी भी समस्या थी, “यदि मुझमें शारीरिक बल होता तो निर्बल एवं दुःखी जनों पर कभी अत्त्याचार नहीं होने देता।” उपलब्ध साधनों का किसी प्रकार उपयोग का विचार न करते हुए प्रारब्ध को दोषी ठहराकर सम्मलेन समाप्त ह

परख

ठाकुर श्री रामकृष्णदेव की साधनास्थली दक्षिणेश्वर के जमींदार नवीन रायचौधरी के पुत्र योगेन का विवाह हो गया था, लेकिन वे अधिकतर रात्रि में घर न जाकर ठाकुर की सेवा में पड़े रहते थे। जब सब लोग रात्रि में अपने घर चलें जाएँ तब वे ठाकुर की सेवा का कोई अवसर प्राप्त कर सके, इसी आकांक्षा से रहते थे। एक दिन रात्रि में ठाकुर ने भोजन किया एवं योगेन ने भी भोजन कर लिया। ठाकुर अपनी बड़ी खटिया पर सोने के लिए लेट गए। योगेन भी भूमि पर बिस्तर लगाकर सो गये। मध्य रात्रि में ठाकुर को बाहर जाने की आवश्यकता पड़ी। योगेन की तरफ़ देखा, जोकि गाढ़ निद्रा में सो रहा था। उनको इस गाढ़ निद्रा में जगाना ठीक नहीं समझा, स्वयं ही दरवाज़ा खोलकर बाहर जंगल की तरफ चले गए। थोड़ी देर बाद ही योगेन की आँखें खुलीं, देखा घर का दरवाज़ा खुला पड़ा है। पलंग पर ठाकुर नहीं हैं। अकेले कहाँ चले गए इतनी रात में। निवृत्त होने जाते तो लोटा-तौलिया लेकर जाते, जोकि वहीँ रखे थे। हो सकता है चाँदनी रात में गंगा तट पर टहलने निकले हों, इस समय सुहावनी हवा बह रही है, उसी का आनंद ले रहें हों। चल कर देखते हैं गंगा तट पर। लेकिन यह क्या यहाँ भी तो नहीं हैं। कहीं

प्रभु से कहो

बन्दर का बच्चा अपनी माँ को अपने हाथ-पाँव से पकड़ कर रहता है। उसकी माँ जब एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उछल कर जाती है, वह बच्चा बहुधा उस झटके से अपनी माँ के बन्धन से छूटकर गिर जाता है, उसे चोट लग जाती है। लेकिन बिल्ली के बच्चे को बिल्ली अपने दाँतों से दबाकर चलती है। बच्चे को कोई चिंता नहीं रहती की उसकी माँ उसे कहाँ ले जाएगी। चाहे राखी के ढेर पर ले जाए, या किसी बिछे हुए मुलायम बिचौने पास ले जाए। जहाँ मर्ज़ी हो वहाँ ले जाए। बच्चे को कोई चिंता नहीं, कि कभी वह माँ से बिछुड़ जाएगा। कारण माँ ही अपने दाँतों से उसको पकड़े हुए है। वह पकड़ मज़बूत है। इसके बदले कहीं बच्चा माँ को पकड़ता तो वह पकड़ किसी झटके से ढीली भी पड़ सकती है। ठाकुर रामकृष्ण परमहंस अपने भक्तों से कहा करते थे कि ठीक बिल्ली के बच्चों की तरह ही अपने इष्ट से कहो कि “हे भगवान! हमारा हाथ पकड़े रहो। तुम्हारी पकड़ से मैं कभी नहीं अलग हो पाऊंगा। कारण तुम्हारी पकड़ मज़बूत है। मैं तुम्हें पकड़ने में असमर्थ हूँ। यह रहा मेरा हाथ, इसे सख़्ती से पकड़ कर मुझे निहाल कर दो।” एक दूसरा दृष्टान्त भी वह देते थे। एक खेत में से दो बच्चों को लेकर एक किसान चला जा रह

वास्तविकता न भूलें

एक बहुत साधारण व्यक्ति था। वह कम पढ़ा-लिखा होने के साथ निर्धन भी था। नौकरी की तलाश में बम्बई पहुँचा। बम्बई में और कोई नौकरी तो मिली नहीं, एक सेठ जी के यहाँ झाड़ू देने का काम करने लगा। प्रतिदिन प्रातः काल आता, लंबी-चौड़ी दुकान में झाड़ू लगाता। दिन में भी कई बार सफाई करता और जब भी खाली समय मिलता कोई न कोई किताब लेकर बैठ जाता। पढ़ता भी, लिखता भी। उसकी लिखावट बहुत सुन्दर थी। एक दिन सेठ जी ने उसे लिखते हुए देखा; बोले ,”अरे! तू लिखना भी जानता है?” वह बोला, “जी थोड़ा-थोड़ा लिख लेता हूँ। सेठ जी ने उसे चिट्ठियाँ लिखने पर लगा दिया। अब वह खूब परिश्रम से सँवार कर चिट्ठियाँ लिखने लगा। उसके लिखने का और विषय को प्रस्तुत करने का ढंग बहुत सुंदर था। चिट्ठी में हिसाब-किताब की बात आती तो उसे भी वह खूब अच्छी प्रकार समझा-बुझाकर लिखता। सेठ जी ने उसे एक दिन उसके द्वारा लिखे गये पत्र को देखा, बोले, “अरे! तू हिसाब-किताब भी जनता है?” वह बोला, “जी थोड़ा-बहुत जानता हूँ।” सेठ जी ने उसे मुनीम बना दिया। थोड़े समय बाद ही उसके कार्य से प्रसन्न होकर उसे हेड मुनीम बना दिया। अब दूसरे मुनीम जलने लगे। ईर्ष्या का भाव