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निश्चल क्यों हो?

बुद्ध भिक्षु किसी वेश्या के निवास स्थान के आगे से चला जा रहा था। वेश्या बाहर खड़ी थी। भिक्षु का अभिवादन किया एवं वर्षाकाल का चतुर्मास उनके ही घर में बिताने के लिए भिक्षु को आमंत्रण दे दिया। साधारण भिक्षु होता तो कह देता, “मैं भिक्षु होकर वेश्या के घर नहीं रुक सकता”, एवं ऐसा कहकर वह आगे बढ़ जाता और शायद फिर कभी भी उस घर के आगे से नहीं गुजरता। वेश्या ने भी सोच रखा था, भिक्षु इस आमंत्रण को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन उस भिक्षु ने कहा, “आ जाऊंगा, लेकिन बुद्ध की आज्ञा लेनी पड़ेगी। कल मैं उनकी आज्ञा जैसी होगी, तुम्हें सूचित कर जाऊंगा।” वेश्या ने शंका की, “यदि आज्ञा नहीं हो तब?” भिक्षु ने उत्तर में कहा, “मुझे दृढ़ विश्वास है बुद्ध आज्ञा दे देंगे। कारण वेश्या गृह में रहकर मेरे में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। आज्ञा मांगने की केवल औपचारिकता मात्र है। वैसे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।” दूसरे दिन सारे भिक्षुओं के बीच, उस भिक्षु ने खड़े होकर बुद्ध से निवेदन किया, “एक मजेदार घटना घट गई है। मैं मार्ग में चला जा रहा था, तभी एक वेश्या वर्षाकाल के चार मास उनके घर में व्यतीत करने के लिए आमंत्रण दिया ह

छोटा शेर बड़ा होने पर

ब्रिटिश राज्य के समय में एक ब्रिटिश फौजी अफसर भारतवर्ष में आया था। उसको शिकार का बहुत शौक था। एक बार जब वह शिकार करने गया तो उसको एक छोटा शेर का बच्चा मिल गया। बच्चा बड़ा ही प्यारा था। उसको घर साथ ले आया एवं बराबर साथ रखने लगा। यहां तक कि रात में भी उसको साथ सुलाता था। काफी समय बाद एक दिन अचानक रात्रि में उस फौजी अफसर की नींद खुल गई। उसकी हथेलियों में जलन और दर्द हो रहा था एवं वह पसीने से तर-बतर हो गया था। उसने देखा वह शेर का बच्चा प्यार से उसका हाथ सहला रहा है। लेकिन वह शेर अब बड़ा हो चला था और उसके नाखून निकल आए थे। सहलाने के साथ-साथ नाखून से उस अफसर की हथेलियां खरोच रहा था और उन से खून बह रहा था। फौजी था ही। उसके पास दूसरा चारा नहीं था। उसने तकिए के नीचे से रिवॉल्वर निकाली एवं शेर के बच्चे को ढेर कर दिया। दोष अर्थात बुरी आदतें भी मानव जीवन में उस शेर के बच्चे की तरह धीरे-धीरे आने लगती हैं। आरंभ से वे दोष बहुत साधारण मालूम होते हैं एवं लगता है कि उनके आ जाने से कोई विशेष हानि नहीं होगी। उन देशों का समर्थन भी हम यह कह कर देते हैं कि ज़रा सी बात है, इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा। ल

नसीहत

एक नौजवान जीवन से निराश होकर किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकता फिरता था, जो उनके निराश जीवन में सही दिशा दे सके। एक दिन उसे एक वृद्ध व्यक्ति मिल गया। उसने उस वृद्ध व्यक्ति को अपने जीवन की समस्याएं विस्तार में बताईं और किस तरह जीवन में सफलता मिल सके उसके बारे में उनकी राय जाननी चाही। वृद्ध ने उस व्यक्ति की बात को अनसुनी करते हुए पूछ लिया कि, “क्या तुम सामने वाले पेड़ पर चढ़ सकते हो?” युवक ने बताया कि हां वह चढ़ सकता है। वृद्ध ने कहा, “तो चलना प्रारंभ करो।” युवक ने कहा, “लेकिन मेरी समस्याओं के समाधान के साथ वृक्षारोहण का क्या संपर्क?” वृद्ध ने उत्तर दृढ़ता से कहा, “तुमने मेरे सामने समस्याएं रख दी हैं, अब तुम निश्चिंत होकर जैसा मैं कहूं वैसा करो।” एक प्रकार लाचारी से उसने वृक्ष पर चढ़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह उच्चतम शिखर पर पहुंच गया। वृद्ध कुछ नहीं बोला, केवल युवक की क्रिया को शांत स्थिर होकर देखता रहा। अब वह जवान नीचे उतरने लगा। जब वह मुश्किल से ज़मीन से 10 से 15 फीट की ऊंचाई पर रह गया तो अचानक वृद्ध ने कहा, “बेटा संभलकर उतरना।” युवक को बड़ा आश्चर्य हुआ। जब आसमान जितनी ऊं

साथी की खोज

एक फकीर के घर में आधी रात गए एक चोर घुस गया। चोर ने सोचा, गृहस्वामी सो गया होगा। लेकिन तब वह जग रहा था। दिये की रोशनी में कुछ लिखने में तल्लीन था। चोर घबरा गया, छूरा निकाल लिया। फकीर ने उसकी तरफ देखा और कहा, “छूरा अंदर कर लो, इसकी शायद ही कोई जरूरत पड़े।” फिर कहा, “थोड़ा इंतजार करो, मैं यह लिखने का कार्य समाप्त कर लूं, फिर तुमसे काम की बात करूँगा।” फकीर की बात में कुछ ऐसा आकर्षण था कि चोर सम्मोहित सा बैठ गया। हाथ का काम समाप्त कर फकीर ने पूछ, “कैसे आना हुआ? थोड़े में सच-सच बता दो, ज्यादा समय न खराब करो। मेरे सोने का समय हो गया है।” चोर ने कहा, “आप बड़े विचित्र व्यक्ति हैं। आप देख रहे हैं, मैं चोर हूँ, हाथ में छूरा है, काला कपड़ा पहने हूँ, चोरी करने आया हूं।” फकीर ने कहा, “लेकिन तुम गलत जगह आ गए हो। आज तक किसी ने चोरी करने लायक मेरा घर नहीं समझा। यह पहला मौका है, कोई चोरी करने मेरे यहां आया है। आना ही था तो पहले सूचना तो दे देते, ताकि मैं तुम्हारी चोरी के लिए कुछ इंतज़ाम करके रखता। यहां तो कुछ भी नहीं है। क्या चुराओगे? अब यदि तुम खाली हाथ जाओगे तो बदनामी की बात होगी। लेकिन ठहरो,

राजा भोज एवं कवि कालिदास

भारतीय इतिहास मैं राजा भोज एवं कवि कालिदास का एक महत्वपूर्ण स्थान है। राजा भोज संस्कृत के अच्छे विद्वान थे, अतएव उनके दरबार में कालिदास, दण्डी, भारवि आदि बड़े-बड़े प्रतिभावान विद्वान रहते थे। एक समय राजा भोज के मन में यह जिज्ञासा हुई कि मेरी सभा में नवरत्नों में से श्रेष्ठ विद्वान-कविरत्न कौन है? यह तो मानी हुई बात है कि संसार में सब एक से नहीं होते। छोटे-बड़े हुआ करते हैं, किसी की किसी विषय में योग्यता एवं प्रौढ़ता होती है, तो किसी की अन्य किसी विषय में। राजा ने यह जिज्ञासा अपनी सभा में प्रकट की। एक मंत्र-शास्त्र वेत्ता ने सम्मति दी कि इसका निर्णय भगवती श्रीसरस्वती जी के मुख से ही होना चाहिए। नवरात्रि का शुभ समय समीप ही आ रहा था, इसलिए उसने राजा भोज से कहा कि, “उस समय विधि पूर्वक कुंभ-स्थापन कर मातेश्वरी भगवती श्रीशारदा से ही इस विषय का प्रश्न करना चाहिए। वह ही कृपया कविश्रेष्ठ का नाम बतला देंगी।” सभी नवरत्नों को अपनी-अपनी विद्वता एवं नैपुण्य पर पूर्ण विश्वास था। कालिदास ने विचार किया कि सरस्वती तो मेरी माता है, उनकी दिव्य कृपा से ही तो मैं गँवार से विद्वान-कविराज बना हूं। “जिह्व

निकृष्ट भावनाओं से उत्साह हीनता

कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने करण एवं अर्जुन रथारूढ़ होकर युद्ध कर रहे थे। अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण थे। वे अर्जुन में उत्कृष्ट-भावनाएं भर रहे थे। वह कहते थे, “हे अर्जुन! तुम इंद्र पुत्र हो, तुम बड़े वीर हो, तुम विशुद्ध क्षत्रिय राजकुमार हो, तुम्हारा मुकाबला करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है, “पार्थ एवं धनुर्धर” ऐसी अनश्र तो समग्र विश्व में फैले हुए तुम्हारे यश-सौरभ को विकीर्ण करती है। और की तो बात किया? साक्षात काल को भी परास्त कर सकते हो। तुम विश्वविजयी हो, महान हो, तुम्हारे समक्ष यह बेचारा कर्ण क्या चीज़ है; जैसे सिंह के सामने गीदड़, जैसे सूर्य के सामने जुगनू। तुम इसे अभी कुछ ही क्षणों में पराजित कर दोगे। तुझमें अपार-शक्ति है।” इधर कर्ण का सारथी राजा शल्य था। वह भीष्म के समान कौरव पक्ष में रहने पर भी ह्रदय से धार्मिक, सदाचारी एवं भगवद् भक्त पांडवों की ही विजय चाहता था। इसलिए वह कर्ण का सारथी भी नहीं बनना चाहता था। किंतु दुर्योधन ने जब बहुत ही अनुनय-विनय की तब शल्य ने एक शर्त के साथ कर्ण का सारथी बनना स्वीकार किया। शल्य ने कहा मैं जो भी अच्छा या बुरा कहूं, वह सब कर्ण को च