संदेश

भवभयहारी भगवान

एक विचित्र अनुभव की बात है। हाल ही में प्रयाग से कलकत्ता जा रहा था। साथ में बाल-बच्चे भी थे। जाने के पूर्व मन ही मन में बड़ी चिंता थी। क्योंकि आज कल ट्रैन में लूट-मार, चोरी-डकैती, हत्याएं होती रहती है। गुंडे और बदमाशों के दल मुसाफिरों के पीछे लगे रहते हैं। जो कुछ भी न हो जाय, वही थोड़ा है। जाना अवश्यम्भावी था। इसलिए मन कुछ खिन्न था , लेकिन करता भी क्या? कोई उपाय बोधगम्य नहीं हो रहा था, जिसमे निर्विघ्न पूरी की जा सके। एक भय का वातावरण-सा छा रहा था। गीता का पाठ भी मै करता हूँ, रामायण एवं अन्यान्य धर्म ग्रंथों का अध्ययन भी होता रहता है। सत्संग करने का भी सौभाग्य प्राप्त होता रहता है, महात्माओं के उपदेश श्रवण करने का भी सुअवसर प्राप्त होता रहता है। इतना सब होते हुए भी मन में यह अकारण भय किस कारण से छा रहा था, यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। यदि किसी धनलोलुप हत्यारों ने मेरा प्राणांत भी कर दिया तो क्या हो जायेगा? आत्मा तो अमर है? फिर यह भय कैसा? यदि कोई चोर मेरा सामान चुरा कर भी ले गया तो कौन अनर्थ हो जायेगा? आखिर एक रोज सब छोड़कर चला ही जाना पड़ेगा। जिस देह के प्रति मेरी इतनी आसक्ति है, वह

सभी परिस्थितियाँ साधनानुकूल हैं

क्या किसी गृहस्थाश्रमी के अनुभव के कथन श्रवण से किसी मानव का कल्याण संभव है? संसार-धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति का अनुभव तो विषय भोगों की भावनाओं से ओत-प्रोत रहता है। उन्हें तो संसार चक्र से ही अवसर नहीं मिलता। वह तो दिन रात अपने रोने-गाने में ही लगा रहता है। उन्हें साधनात्मक जीवन व्यतीत करते हुए अनुभव प्राप्त करने का अवसर ही कहाँ? किन्तु उपर्युक्त विचारधारा महात्माओं के कथनानुसार पूर्णरूप से सत्य भी नहीं कही जा सकती आंशिक रूप से भले ही सत्य हो। यह कहना की गृहस्थाश्रमी के लिए साधनात्मक जीवन व्यतीत करने का वातावरण ही अलभ्य है, निराधार तर्क है। मनुष्य जिस परिस्थिति में जन्म लेता है, वही उसके लिए साधन है। यह नहीं समझना चाहिए कि जिस परिस्थिति में मनुष्य रहता है, वह उसके साधन के लिए प्रतिकूल है। वरञ्च उस परिस्थिति को ही भगवान् का अनुग्रह समझकर, साधना मार्ग में अग्रसर होना चाहिए। उस प्रतिकूलता में अनुकूलता का दर्शन में ही साधन मार्ग प्रशस्त होता चला जायेगा।  संत एकनाथ को भगवान् ने मन के अनुकूल पत्नी दी। उन्होंने अनुभव किया कि 'भगवान् का मुझ पर कितना अनुग्रह है कि ऐसी सति साध्वी स्त्री

दैवी सम्पत्ति के आश्रय से - मानवता

मानव में मानवता स्वाभाविक रूप से रहती है। यह उनका जन्मजात स्वभाव है, लेकिन किसी मानव में मानवता है या नहीं, यह उसकी बाह्य आकृति से बोध नहीं होता। यह मानव की प्रकृति से ही बोध होता है । भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमदृभगवदूगीता के सोलहवें अध्याय में दैवी एवं आसुरी प्रकृति की विस्तृत व्याख्या की है। दैवी-सम्पत्ति में “देव” शब्द परमात्मा का वाचक है और उनकी सम्पत्ति "दैवी-सम्पत्ति” है। परमात्मा का ही अंश होने से जीव में दैवी-सम्पत्ति स्वत: स्वाभाविक है। जब जीवन अपने अंशी परमात्मा से विमुख होकर जड़ प्रकृति के सम्मुख होता है अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील शरीरादि पदार्थों का संग कर लेता है, तब उसमें आसुरी-सम्पत्ति आ जाती है। दैवी-सम्पत्ति ही मानवीय सम्पत्ति या मानवीय गुण है कारण जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है एवं ये गुण ही मानवता की आधारशिला है। मानव मानवीय गुणों का आश्रय न लेकर आसुरी गुणों को अपनाता है तो वह मानवता से विमुख होकर दानवता की ओर बढ़ता रहता है। इस कारण उनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, दंभ, द्वेष आदि दुर्गुण आ जाते हैं। भगवान् कहते हैं - देवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। मा शुच: संप

दैवी एवं आसुरी सम्पत्ति

भगवान ने कृपा कर मानव शरीर दिया है , शरीर का कुछ पता नहीं कि कब प्राण चले जायें? ऐसी अवस्था में जल्दी से जल्दी अपना उद्धार करने के लिए आसुरी सम्पत्ति का त्याग करना बहुत आवश्यक है| परमात्मा का ही अंश होने के कारण जीव में दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है, लेकिन परमात्मा से विमुख होकर जब जीव उत्त्पति-विनाशशील शरीरादि पदार्थों का संग कर लेता है, तब उसमे आसुरी सम्पत्ति आ जाती है| दैवी और आसुरी सम्पत्ति सब प्राणियों में पायी जाती है| यद्यपि जीवन-मुक्त, तत्वज्ञ महापुरुष तो आसुरी सम्पत्ति से रहित होते हैं, लेकिन अन्य जीवों में आसुरी सम्पत्ति की मुख्यता होने के कारण दैवी सम्पत्ति दब-सी जाती है सर्वथा मिटति नहीं क्योंकि सत् वस्तु कभी मिट नहीं सकती| कोई कितना ही दुर्गुणी, दुराचारी क्यों न हो उसके साथ आंशिक सदगुण, सदाचार रहेंगे ही| प्राणी-मात्र में यह इच्छा रहती है कि - १. मैं सदा जीता रहूँ अर्थात कभी मरूँ नहीं - (सत्) २. मैं सब कुछ जान लूँ अर्थात कभी अज्ञानी न रहूँ - (चित्) ३. मैं सर्वदा सुखी रहूँ अर्थात कभी दुःखी न होऊँ - (आनन्द) इस प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा का अंश होने से प्राणिमात्र में सत

शिव भक्त उपमन्यु

शिव-भक्त उपमन्यु, महर्षि व्याघ्रपाद का पुत्र था। उसकी भी गणना अर्थार्थी-भक्तों में की जाती है। एक दिन उपमन्यु माता से दूध माँगा। घर में दूध न होने के कारण माता ने चावलों का आटा जल में घोलकर उपमन्यु को पीने के लिए दिया। उपमन्यु अपने मामा के घर असली दूध पी चुका था। इसलिए इस नकली दूध को तुरंत पहचान गया और माता को बोला, “मां! यह तो दूध नहीं है।” ऋषि-पत्नी झूठ बोलना नहीं जानती थीं। उन्होंने कहा, “बेटा! तू सत्य कहता है दूध नहीं है। हम तपस्वी एवं पर्वतों की गुफाओं में जीवन बिताने वाले अकिंचन हैं, इसलिए अपने यहां असली दूध कहां से मिल सकता है? हमारे तो परमाराध्य-सर्वस्व भगवान् श्री शंकर हैं, यदि तू अच्छा दूध पीना चाहता है, तो उन आशुतोष कैलाश पति भगवान् महादेव को प्रसन्न कर, उनकी प्रेम से आराधना कर। उनके प्रसन्न हो जाने पर दूध क्या दूध का समुद्र प्राप्त हो सकता है।” माता की बात सुनकर बालक उपमन्यु ने पूछा, “मां! भगवान् महादेव कौन हैं? कहां रहते हैं? उनका कैसा स्वरुप है? मुझे वह किस प्रकार मिलेंगे? और उन्हें प्रसन्न करने का क्या उपाय है?” बालक के यह वचन सुनकर स्नेहवश माता की आंखों में आँसू

आतंक

यमराज ने मृत्यु को बुलाकर एक हज़ार आदमी मार लाने का आदेश दिया। आज्ञा का पालन कर जब यमराज लौटे तो उनके साथ एक हजार के बजाय तीन हज़ार मृतात्मायें थीं। यमराज ने कुपित होकर कहा, “यह तुमने क्या किया? मैंने तो एक हज़ार के लिए ही कहा था। तुमने आदेश का उल्लंघन क्यों किया।” “यमराज, मैंने आपकी आज्ञा क्या अक्षरशः पालन किया है।” “तो फिर, यह कैसे हुआ?” मृत्यु ने हाथ जोड़कर क्षमा याचना करते हुए कहा, “देव, हमने तो एक हज़ार को ही मौत के घाट उतारा है। शेष तो डर के मारे स्वयं मर कर साथ हो लिए हैं।” वस्तुतः होता यह है। वास्तविक विपत्ति से जितनी हानि होती है, उस की तुलना में कई गुना हानि लोग कर लेते हैं। भय, आशंका, चिंता, निराशा आदि की उद्विग्नता से दुखी होकर लोग अपना संतुलन गँवा बैठते हैं। और इस आपाधापी में शरीर एवं मन के तनाव से शिकार होने के साथ-साथ अपने हाथों के नीचे के कामों को ही अस्त-व्यस्त कर बैठते हैं। इसके विपरीत यदि धैर्य, साहस संतुलन कायम रखा जा से तो वास्तविक विप्पति से निपटने के लिए विवेकयुक्त उपाय सोचे जा सकते हैं एवं अनावश्यक हानियों से बचा जा सकता है।

जितना दिखता है, उतना तो आगे बढ़ो

एक भोले-भाले किसान को रात्रि के समय एक आवश्यक कार्य  से दो मील दूर किसी गांव में जाने की आवश्यकता पड़ गई। रास्ता अंधकारमय था। प्रकाश के लिए उसने लालटेन साथ में ली। पहले-पहल वह रात्रि में किसी अंय गाँव जा रहा था। उसने यात्रा आरंभ की। लेकिन आश्चर्य! घर से चार कदम चल कर वह एकाएक रुक गया। गांव का ही किसी समझदार व्यक्ति उसे जाते हुए देख रहा था। उसे यात्रा के प्रारंभ में स्तंभित होकर रुकने का कारण पूछा, “क्यों भाई, रुक क्यों गए?” किसान ने कहा, “हमें जाना है दो मील, लेकिन लालटेन के उजाले में रास्ता दिखता है केवल दस गज का। दो मील का रास्ता अंधेरे में कैसे पूरा होगा?” सज्जन ने कहा, “भले आदमी, जितना दिखता है उतना तो आगे बढ़ो। उसके बाद फिर उतना ही रास्ता आगे और दिखने लगेगा।” किसान ने बात मान ली। वह लालटेन लेकर चल पड़ा। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया, आगे का रास्ता प्रकाशित होता रहा और अंत में वह अपने लक्ष्य स्थान तक पहुंच ही गया। तात्पर्य है कि अपने विवेक के प्रकाश में जितना सत्य दिखता हो, उसको आचरण में लाते रहने का परोक्ष सत्य भी प्रत्यक्ष हो जाएगा यह निश्चय है।

किसान-विधाता-पर्वत

विधाता ने अपनी रचित सृष्टि का सर्वेक्षण करने के विचार से दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक किसान फावड़ा लेकर एक विशाल पर्वत शिखर को खोदने में तल्लीन है। कुछ विस्मय हुआ। साकार हो कर किसान के सम्मुख प्रकट हुए और उससे इस दुस्साहिक कार्य का कारण क्या है पूछा। किसान ने अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए ही बताया कि, “भगवान, बादल आते हैं और इस पर्वत शिखर से टकरा कर दूसरी ओर वर्षा कर देते हैं। मेरे खेत सूखे की सूखे ही रहते हैं। अतः मैंने संकल्प किया है कि इस पर्वत को मैं यहां से हटाकर ही चैन लूंगा।” विधाता आश्चर्यचकित हुए, “क्या तुम इतने विशाल पर्वत को अकेले ही तोड़ पाओगे?” किसान ने आत्मविश्वास के साथ कहा, “मेरा यह दृढ़ संकल्प है मुझे निश्चय इस कार्य में सफलता मिलेगी।” विधाता किसान के आत्मबल पर निर्भरता को देखकर अत्यंत प्रभावित हुए और आगे चलने को हुए। इतने में पर्वतराज  गिड़गिड़ाने लगे। “भगवान, इस किसान से मेरी रक्षा कीजिए।” विधाता के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, “गिरिराज तुम एक छोटे से किसान से इतने त्रस्त हो गए हो।” गिरिराज बोला, “किसान छोटा है तो क्या, उसका संकल्प दृढ़ है। उसका आत

भाग्य और पुरुषार्थ

“तुम्हारे पकाए हुए इन मिट्टी के बर्तनों को कोई तोड़ दे तो तुम क्या करोगे?” भगवान महावीर ने उस कुम्हार से पूछा, जो कि मिट्टी का बर्तन चाक पर बना रहा था। “यदि भाग्य में यही लिखा है तो ऐसा ही होगा” कुम्हार का उत्तर था। वह कुमार भाग्यवादी था, पुरुषार्थ उसकी दृष्टि में ज्यादा महत्व का नहीं था। “और यदि तुम्हारी पत्नी से कोई दुराचरण करे तब?” महावीर फिर पूछ बैठे। इतना सुनते ही कुम्हार का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, “किसकी हिम्मत है कि वह ऐसा कर सके। यदि कोई मेरी पत्नी की और आँखें उठाकर भी देखें तो मैं उसे अच्छी तरह निपट लूँगा।” “लेकिन यह भी तो नियतिवश ही होगा। इसमें क्रोधित होने की तो कोई बात नहीं।” महावीर के इन वचनों से कुम्हार का भ्रम दूर हुआ और नत होकर स्वीकार किया, “आप ठीक कहते हैं भगवान। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जीवन में पुरुषार्थ के द्वारा ही भाग्य का निर्माण होता है।”

श्रेष्ठ कार्य

महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ संध्या समय एक उद्यान में भ्रमण कर रहे थे। उसी उद्यान के सरोवर में कमल के फूल यथेष्ठ संख्या में खिले हुए थे। कमल के फूलों से सरोवर जैसे मुस्कुरा रहा था। उस शोभा को देखने में मग्न महात्मा बुद्ध आनंदविभोर हो रहे थे। एक शिष्य उनकी इस दशा को देखकर सरोवर से एक पुष्प तोड़ लाया एवं बुद्ध के चरणों में अर्पित कर दिया। बुद्ध के शिष्य का यह कार्य अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा, ”वत्स, तुमने यह कार्य उचित नहीं किया। किसी ने अपने परिश्रम से सरोवर की शोभा बढ़ाने के लिए इन पुष्पों को लगाया होगा। दूसरे की परिश्रम से लगे हुए पुष्पों को तोड़ने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। यह पाप है।” शिष्य ने अपने इस अनुचित कार्य को स्वीकार करते हुए क्षमा याचना की। थोड़ी ही देर बाद एक अन्य व्यक्ति आया एवं निर्दयतापूर्वक पुष्पों को तोड़कर फेंक ने लगा। इस दृश्य को भी बुद्ध ने देखा। लेकिन वह शांत रहे, उस व्यक्ति की भर्त्सना नहीं की, कुछ बोले नहीं। शिष्य से नहीं रहा गया, पूछ बैठा, “भगवान, आपको अर्पित करने के लिए एक पुष्प तोड़ने की त्रुटि के कारण आपने हमारी भर्त्सना की थी, लेकिन इतने पुष