दैवी एवं आसुरी सम्पत्ति
भगवान ने कृपा कर मानव शरीर दिया है , शरीर का कुछ पता नहीं कि कब प्राण चले जायें? ऐसी अवस्था में जल्दी से जल्दी अपना उद्धार करने के लिए आसुरी सम्पत्ति का त्याग करना बहुत आवश्यक है|
परमात्मा का ही अंश होने के कारण जीव में दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है, लेकिन परमात्मा से विमुख होकर जब जीव उत्त्पति-विनाशशील शरीरादि पदार्थों का संग कर लेता है, तब उसमे आसुरी सम्पत्ति आ जाती है|
दैवी और आसुरी सम्पत्ति सब प्राणियों में पायी जाती है| यद्यपि जीवन-मुक्त, तत्वज्ञ महापुरुष तो आसुरी सम्पत्ति से रहित होते हैं, लेकिन अन्य जीवों में आसुरी सम्पत्ति की मुख्यता होने के कारण दैवी सम्पत्ति दब-सी जाती है सर्वथा मिटति नहीं क्योंकि सत् वस्तु कभी मिट नहीं सकती| कोई कितना ही दुर्गुणी, दुराचारी क्यों न हो उसके साथ आंशिक सदगुण, सदाचार रहेंगे ही|
प्राणी-मात्र में यह इच्छा रहती है कि -
१. मैं सदा जीता रहूँ अर्थात कभी मरूँ नहीं - (सत्)
२. मैं सब कुछ जान लूँ अर्थात कभी अज्ञानी न रहूँ - (चित्)
३. मैं सर्वदा सुखी रहूँ अर्थात कभी दुःखी न होऊँ - (आनन्द)
इस प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा का अंश होने से प्राणिमात्र में सत्-चित-आनंद की इच्छा रहती है|
पर उनसे गलती यह होती है कि -
१. मैं सदा रहूँ तो शरीर सहित रहूँ|
२. मैं जानकार बनूँ तो बुद्धि को लेकर जानकर बनूँ|
३. मैं सुखी बनूँ तो इंद्रियों और शरीर के साथ सुखी बनूँ|
इस प्रकार इन इच्छाओं को नाशवान् संसार से ही पूरी करना चाहता है और प्राणों का मोह होने से आसुरी-सम्पत्ति प्राणिमात्र में रहती है|
सत्संग, स्वाध्याय आदि के द्वारा मनुष्य में परमात्मा की प्राप्ति करने का विचार होता है और वह दैवी
सम्पत्ति के गुणों को अपने बल से उपार्जित करना चाहता है अर्थात - मैं सत्य बोलूँगा, मैं हिंसा नहीं करूँगा, मैं दयावान् बनूँगा|
जब अपने बल से कोई चीज उपार्जित की जाती है, तो उसमें अभिमान आता है कि मैं सत्यवादी हूँ, दयावान् हूँ, अहिंसक हूँ और इस अहंकार में आसुरी-सम्पत्ति रहेगी| जब तक दैवी सम्पत्ति के लिए उद्योग करता रहेगा तब तक आसुरी सम्पत्ति छूटेगी नहीं|
वैसे जीव स्वरूपतः ईश्वर का अंश होने के कारण उनमें दैवी-सम्पत्ति के गुण स्वतः स्वाभाविक रहते हैं| जैसे कोई विचार करे कि मैं सत्य ही बोलूँगा तो वह उम्र भर सत्य बोल सकता है, परंतु झूठ ही बोलूँगा ऐसा विचार होने पर तो खाना-पीना, बोलना-चलना तक उसके लिए मुश्किल हो जाएगा| भूख लगी हो और झूठ बोले कि भूख नहीं है, तो जीना मुश्किल हो जाएगा|
आसुरी सम्पत्ति आगन्तुक है| कोई आदमी प्रसन्न रहता है तो कोई यह नहीं पूछता है कि तुम प्रसन्न क्यों हो? कारण प्रसन्न रहना जीव का स्वाभाविक गुण है, पर कोई आदमी दुःखी रहता है तो पूछा जाता है कि तुम दुःखी क्यों हो, क्योंकि दुःखी रहना स्वाभाविक नहीं है।
मनुष्य शुभ या अशुभ कोई भी काम करता है तो अपने अहंकार के साथ करता है। जब वह परमात्मा की तरफ चलता है तो उसके अहंकार में सत्-अंश की मुख्यता होती है और जब संसार की तरफ चलता है तो असत्-अंश की मुख्यता होती है। सत्-अंश की मुख्यता होने से वह दैवी संपत्ति का अधिकारी कहा जाता है और असत्-अंश की मुख्यता होने से वह उसका अनधिकारी कहा जाता है।
भोग्य पदार्थों की सब इच्छाएँ असत्-अंश में ही रहती हैं। सुख-दुःख रूप विकार तो जड़ प्रकृति में ही होता है, पर जड़ के सम्बन्ध को चेतन पुरुष या जीव अपने में मान लेता है। जैसे घाटा लगता है दुकान में, परंतु दुकानदार कहता है, मुझे घाटा लग गया। अतः जड़ के संयोग से चेतन पर सुख-दुःख का परिणाम होता है, तभी वह सुख-दुःख से मुक्ति चाहता है।
आसुरी सम्पत्ति जड़ प्रकृति के संयोग से आती है। वह आगन्तुक है, लेकिन चेतन के साथ सम्बन्ध होने के कारण वह विनाशी होते हुए भी अविनाशी लगती है। इसलिए जिस मनुष्य में आसुरी सम्पत्ति होती है, वह आसुरी सम्पत्ति का त्याग कर सकता है।
क्योंकि-
सनमुख होई होई जीव मोही जब ही।
जन्म कोटि अघ नाशहिं तब ही।।
(मानस)
अर्जुन साधक मात्र का प्रतिनिधि है। इसलिए अर्जुन के निमित्त से भगवान् साधक मात्र को आश्वासन देते हैं कि चिंता मत करो, अपने में आसुरी-सम्पत्ति दिखजाय तो घबराओ मत, क्योंकि तुम्हारे में दैवी-सम्पत्ति स्वतः स्वाभाविक है-
मा शुच: सम्पदं दैवीम अभिजातोऽसि पाण्डव।
(गीता १६/५)
परमात्मा का ही अंश होने के कारण जीव में दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है, लेकिन परमात्मा से विमुख होकर जब जीव उत्त्पति-विनाशशील शरीरादि पदार्थों का संग कर लेता है, तब उसमे आसुरी सम्पत्ति आ जाती है|
दैवी और आसुरी सम्पत्ति सब प्राणियों में पायी जाती है| यद्यपि जीवन-मुक्त, तत्वज्ञ महापुरुष तो आसुरी सम्पत्ति से रहित होते हैं, लेकिन अन्य जीवों में आसुरी सम्पत्ति की मुख्यता होने के कारण दैवी सम्पत्ति दब-सी जाती है सर्वथा मिटति नहीं क्योंकि सत् वस्तु कभी मिट नहीं सकती| कोई कितना ही दुर्गुणी, दुराचारी क्यों न हो उसके साथ आंशिक सदगुण, सदाचार रहेंगे ही|
प्राणी-मात्र में यह इच्छा रहती है कि -
१. मैं सदा जीता रहूँ अर्थात कभी मरूँ नहीं - (सत्)
२. मैं सब कुछ जान लूँ अर्थात कभी अज्ञानी न रहूँ - (चित्)
३. मैं सर्वदा सुखी रहूँ अर्थात कभी दुःखी न होऊँ - (आनन्द)
इस प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा का अंश होने से प्राणिमात्र में सत्-चित-आनंद की इच्छा रहती है|
पर उनसे गलती यह होती है कि -
१. मैं सदा रहूँ तो शरीर सहित रहूँ|
२. मैं जानकार बनूँ तो बुद्धि को लेकर जानकर बनूँ|
३. मैं सुखी बनूँ तो इंद्रियों और शरीर के साथ सुखी बनूँ|
इस प्रकार इन इच्छाओं को नाशवान् संसार से ही पूरी करना चाहता है और प्राणों का मोह होने से आसुरी-सम्पत्ति प्राणिमात्र में रहती है|
सत्संग, स्वाध्याय आदि के द्वारा मनुष्य में परमात्मा की प्राप्ति करने का विचार होता है और वह दैवी
सम्पत्ति के गुणों को अपने बल से उपार्जित करना चाहता है अर्थात - मैं सत्य बोलूँगा, मैं हिंसा नहीं करूँगा, मैं दयावान् बनूँगा|
जब अपने बल से कोई चीज उपार्जित की जाती है, तो उसमें अभिमान आता है कि मैं सत्यवादी हूँ, दयावान् हूँ, अहिंसक हूँ और इस अहंकार में आसुरी-सम्पत्ति रहेगी| जब तक दैवी सम्पत्ति के लिए उद्योग करता रहेगा तब तक आसुरी सम्पत्ति छूटेगी नहीं|
वैसे जीव स्वरूपतः ईश्वर का अंश होने के कारण उनमें दैवी-सम्पत्ति के गुण स्वतः स्वाभाविक रहते हैं| जैसे कोई विचार करे कि मैं सत्य ही बोलूँगा तो वह उम्र भर सत्य बोल सकता है, परंतु झूठ ही बोलूँगा ऐसा विचार होने पर तो खाना-पीना, बोलना-चलना तक उसके लिए मुश्किल हो जाएगा| भूख लगी हो और झूठ बोले कि भूख नहीं है, तो जीना मुश्किल हो जाएगा|
आसुरी सम्पत्ति आगन्तुक है| कोई आदमी प्रसन्न रहता है तो कोई यह नहीं पूछता है कि तुम प्रसन्न क्यों हो? कारण प्रसन्न रहना जीव का स्वाभाविक गुण है, पर कोई आदमी दुःखी रहता है तो पूछा जाता है कि तुम दुःखी क्यों हो, क्योंकि दुःखी रहना स्वाभाविक नहीं है।
मनुष्य शुभ या अशुभ कोई भी काम करता है तो अपने अहंकार के साथ करता है। जब वह परमात्मा की तरफ चलता है तो उसके अहंकार में सत्-अंश की मुख्यता होती है और जब संसार की तरफ चलता है तो असत्-अंश की मुख्यता होती है। सत्-अंश की मुख्यता होने से वह दैवी संपत्ति का अधिकारी कहा जाता है और असत्-अंश की मुख्यता होने से वह उसका अनधिकारी कहा जाता है।
भोग्य पदार्थों की सब इच्छाएँ असत्-अंश में ही रहती हैं। सुख-दुःख रूप विकार तो जड़ प्रकृति में ही होता है, पर जड़ के सम्बन्ध को चेतन पुरुष या जीव अपने में मान लेता है। जैसे घाटा लगता है दुकान में, परंतु दुकानदार कहता है, मुझे घाटा लग गया। अतः जड़ के संयोग से चेतन पर सुख-दुःख का परिणाम होता है, तभी वह सुख-दुःख से मुक्ति चाहता है।
आसुरी सम्पत्ति जड़ प्रकृति के संयोग से आती है। वह आगन्तुक है, लेकिन चेतन के साथ सम्बन्ध होने के कारण वह विनाशी होते हुए भी अविनाशी लगती है। इसलिए जिस मनुष्य में आसुरी सम्पत्ति होती है, वह आसुरी सम्पत्ति का त्याग कर सकता है।
क्योंकि-
सनमुख होई होई जीव मोही जब ही।
जन्म कोटि अघ नाशहिं तब ही।।
(मानस)
अर्जुन साधक मात्र का प्रतिनिधि है। इसलिए अर्जुन के निमित्त से भगवान् साधक मात्र को आश्वासन देते हैं कि चिंता मत करो, अपने में आसुरी-सम्पत्ति दिखजाय तो घबराओ मत, क्योंकि तुम्हारे में दैवी-सम्पत्ति स्वतः स्वाभाविक है-
मा शुच: सम्पदं दैवीम अभिजातोऽसि पाण्डव।
(गीता १६/५)
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