सभी परिस्थितियाँ साधनानुकूल हैं

क्या किसी गृहस्थाश्रमी के अनुभव के कथन श्रवण से किसी मानव का कल्याण संभव है? संसार-धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति का अनुभव तो विषय भोगों की भावनाओं से ओत-प्रोत रहता है। उन्हें तो संसार चक्र से ही अवसर नहीं मिलता। वह तो दिन रात अपने रोने-गाने में ही लगा रहता है। उन्हें साधनात्मक जीवन व्यतीत करते हुए अनुभव प्राप्त करने का अवसर ही कहाँ?

किन्तु उपर्युक्त विचारधारा महात्माओं के कथनानुसार पूर्णरूप से सत्य भी नहीं कही जा सकती आंशिक रूप से भले ही सत्य हो। यह कहना की गृहस्थाश्रमी के लिए साधनात्मक जीवन व्यतीत करने का वातावरण ही अलभ्य है, निराधार तर्क है। मनुष्य जिस परिस्थिति में जन्म लेता है, वही उसके लिए साधन है। यह नहीं समझना चाहिए कि जिस परिस्थिति में मनुष्य रहता है, वह उसके साधन के लिए प्रतिकूल है। वरञ्च उस परिस्थिति को ही भगवान् का अनुग्रह समझकर, साधना मार्ग में अग्रसर होना चाहिए। उस प्रतिकूलता में अनुकूलता का दर्शन में ही साधन मार्ग प्रशस्त होता चला जायेगा। 


संत एकनाथ को भगवान् ने मन के अनुकूल पत्नी दी। उन्होंने अनुभव किया कि 'भगवान् का मुझ पर कितना अनुग्रह है कि ऐसी सति साध्वी स्त्री से मेरा संबंध हुआ। अब मैं इसकी सहायता से ईश्वर प्राप्ति करूंगा। इसके विपरीत संत तुकाराम को मन के प्रतिकूल पत्नी मिली किन्तु तुकाराम ने इसको भी भगवान् का अनुग्रह समझा। उन्होंने विचार के द्वारा निर्णय किया, यदि भगवान् उन्हें इच्छा के अनुकूल पत्नी देते तो वे अवश्य उसके मोह में फंस जाते। तात्पर्य यह कि, मनके अनुसार स्त्री मिली तो भी अनुग्रह, न मिली तो भी अनुग्रह और मिलकर मर गई तो भी अनुग्रह। 


प्रत्येक प्रतिकूल या अनुकूल परिस्थिति में साधना क्षेत्र का दर्शन करना, यह सद्विचार द्वारा ही संभव है। सद्विचार का उदय सद्विवेक द्वारा होता है और सद्विवेक सत्संग द्वारा जाग्रत होता है। मनुष्य जैसा संग करेगा वैसी बुद्धि ही उसकी होगी एवं वैसी बुद्धि ही उसकी होगी एवं वैसा ही उसका विचार होगा। इसलिए महान लोगों का कथन है, कुसंग से सदैव दूर रहना चाहिए।

गोस्वामी जी कहते है -

                 

बरु भल वास नरक कर ताता।

दुष्ट संग जनि देइ विधाता।।


अच्छे व्यक्तियों का संग करने से वे अच्छी जगह ले जाते हैं। बुरे व्यक्तियों का संग, उसे बुरे मार्ग में ले जाने को सहायक होता है।


कुछ वर्ष पूर्व जगद्गुरु शंकराचार्य श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज प्रयाग में आकर रहने लगे, उनका सत्संग भी होने लगा। यों तो कभी वहाँ जाने की इच्छा नहीं हुई थी, लेकिन हमारे एक हितेच्छु की आंतरिक इच्छा से प्रेरित होकर वहां जाने का अवसर प्राप्त हुआ। कुछ दिनों वहाँ सत्संग करने के बाद उस चमक-दमक के वातावरण में भी छिपे हुए वैराग्य के दर्शन हुए। मन की भ्रांत धारणाओं का निराकरण हुआ, और एक रोज महाराज जी से मंत्र-दीक्षा लेने का अनुप्राणित हुआ।


पूर्ण नास्तिक तो कभी था नहीं, लेकिन बिना खिवैया के नाँव जैसे लहरों में इधर-उधर टकराती रहती है और डूबने का भी दर रहता है, कुछ उसी तरह की मेरी भी अंतर्दशा थी। महाराज जी के सम्पर्क में आने के पूर्व, विचारधाराएं इधर-उधर बिखरी रहती थीं, अब वे धाराएं सुनियंत्रित होकर एक निर्दिष्ट मार्ग की ओर प्रवाहित होने लगीं। पहले कोई भी रंग आसानी से चढ़ जाया करता था, अब वैसा कठिनता से होता था।


कुछ दिनों बाद महाराज जी के ब्रह्मलीन हो जाने के बाद, मार्ग प्रदर्शन के अभाव में मार्ग का ठीक-ठाक पता नहीं लगता था। जिस मार्ग से नाँव जा रही है, वह प्रयत्न ठीक है की नहीं ? यह स्वयं ही निर्णय करना संभव नहीं था, किन्तु आत्मविश्वास के साथ जैसी समझ थी, वैसा निर्णय स्वयं ही को करना पड़ता था।


सौभाग्य से कुछ समय बाद परमपूज्य श्री स्वामी शुकदेवानंद जी महाराज के घनिष्ट सम्पर्क में आने का सुअवसर प्राप्त हुआ। स्वामीजी के व्यक्तित्व से तो मैं पहले ही बहुत प्रभावित था, अब और भी अधिक निकट आ जाने से अधिकाधिक संतोष हुआ। आपके संरक्षण में मेरी जीवन-नौका फिर निर्दिष्ट मार्ग से चलने लगी।


वैसे तो अनेक महान पुरुषों का सत्संग करने का अवसर मिला है। मै अति श्रद्धा सहित नतमस्तक होकर उन सभी महात्माओं का सम्मान करता हूँ, किन्तु उपर्युक्त दोनों महान विभूतियों का सत्संग मेरे जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव डालने में समर्थ हुआ है।


सत्संग से यह अनुभव होने लगता है, कि संसार स्वप्नवत्, समझकर कृत्य कामों का त्याग करके बैठ जाना कहा तक उचित है ? - यह एक विचारणीय विषय है। रंगमंच का अभिनेता भलीभांति जनता है कि जिस मंच पर वह राजा का अभिनय करता है, वह मिथ्या है । इतना जानते हुए भी वह कुशलतापूर्वक अभिनय करता है। मिथ्या समझकर उसका परित्याग नहीं कर देता। इसी तरह जिस परिस्थिति में एवं जी स्थान में मनुष्य जन्म लेता है, उसमें उसका परम् कर्तव्य हो जाता है कि वह व्यावहारिक रूप से सबसे यथायोग्य संबंध रखते हुए बर्ताव करे, एवं  तत्सम्बन्धित कर्मो का जितना भी संभव हो निर्लिप्त होकर सम्पादन करत चले । तब ही वह सच्चे अर्थ में मनुष्य है।


संसार स्वप्नवत है, एवं समस्त कर्म बंधन के कारण हैं - आदि विचार करते हुए, हाथ-पैर समेट कर बैठ जाना तो कायरों का काम है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर गीता में जो निर्देश दिए है, वे कर्मवीर बनने के ही प्रेरणा देते है। यदि कर्मों को वे बुरा समझते तो कदापि अर्जुन को युद्ध करने की सलाह न देकर विरक्त हो जाने का आदेश देते।


सच कहा जाय तो गीता और रामायण दो ऐसे ग्रंथ है, जिनकी तुलना अन्य ग्रंथो से नहीं कि जा सकती। क्योकि, साधारण व्यक्ति भी यदि इच्छा रखता हो तो थोड़े से प्रयत्न से भी इनके नियमित परायण से अपना जीवन सुधार सकता है। बड़े-बड़े विद्वानों के लिए धार्मिक  ग्रंथो का अभाव नहीं , लेकिन साधारण व्यक्तियों कि पहुंच वहाँ तक कठिन है। इन ग्रंथो के स्वाध्याय के साथ-साथ सतसंग भी होता चले तो फिर इनकी उपयोगिता का कोई अंत नहीं।


सत्संग एवं स्वाध्याय आदि साधनों द्वारा यह बात स्पष्ट विदित होती है कि मानव-जीवन में चरित्र-निर्माण ही सब में प्रमुख है। चरित्र के अभाव से ही आज सब जगह इतना पतन दृष्टिगोचर होता है। इसलिए अशांति का वातावरण फैलता चला जा रहा है। चरित्र निर्माण पर विशेष जोर देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।


इस तरह से जिनको इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त होगा, उनका साधनक्षेत्र सुदृढ़ होता चला जायेगा। सर्वशक्तिमान भगवान् पर उन्हें भरोसा होने लगेगा। “मै, मै” का अभिमान दूर होकर भगवान् ही इस विश्व के कर्तार हैं, यह विश्वास होने लगेगा।


वास्तव में परमात्मा की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। मनुष्य चाहता कुछ है, लेकिन होता है, ईश्वर की जैसी इच्छा होती है वैसा ही। लेकिन विचार करके देखा जाए तो भगवान् की इच्छा से जो होता है वह पहले दुखदायी भले ही हो, लेकिन अंत में वह भले ही के लिए होता है। विस्तार भय से यहाँ उदाहरण देना संभव नहीं, अनेकानेक अवसरों पर यह प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है कि जो कुछ होता है, वह परमात्मा की इच्छा से ही होता है एवं अंत में उसका फल भी फलदायक होता है।

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