आतंक
यमराज ने मृत्यु को बुलाकर एक हज़ार आदमी मार लाने का आदेश दिया। आज्ञा का पालन कर जब यमराज लौटे तो उनके साथ एक हजार के बजाय तीन हज़ार मृतात्मायें थीं। यमराज ने कुपित होकर कहा, “यह तुमने क्या किया? मैंने तो एक हज़ार के लिए ही कहा था। तुमने आदेश का उल्लंघन क्यों किया।” “यमराज, मैंने आपकी आज्ञा क्या अक्षरशः पालन किया है।” “तो फिर, यह कैसे हुआ?” मृत्यु ने हाथ जोड़कर क्षमा याचना करते हुए कहा, “देव, हमने तो एक हज़ार को ही मौत के घाट उतारा है। शेष तो डर के मारे स्वयं मर कर साथ हो लिए हैं।” वस्तुतः होता यह है। वास्तविक विपत्ति से जितनी हानि होती है, उस की तुलना में कई गुना हानि लोग कर लेते हैं। भय, आशंका, चिंता, निराशा आदि की उद्विग्नता से दुखी होकर लोग अपना संतुलन गँवा बैठते हैं। और इस आपाधापी में शरीर एवं मन के तनाव से शिकार होने के साथ-साथ अपने हाथों के नीचे के कामों को ही अस्त-व्यस्त कर बैठते हैं। इसके विपरीत यदि धैर्य, साहस संतुलन कायम रखा जा से तो वास्तविक विप्पति से निपटने के लिए विवेकयुक्त उपाय सोचे जा सकते हैं एवं अनावश्यक हानियों से बचा जा सकता है।