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आतंक

यमराज ने मृत्यु को बुलाकर एक हज़ार आदमी मार लाने का आदेश दिया। आज्ञा का पालन कर जब यमराज लौटे तो उनके साथ एक हजार के बजाय तीन हज़ार मृतात्मायें थीं। यमराज ने कुपित होकर कहा, “यह तुमने क्या किया? मैंने तो एक हज़ार के लिए ही कहा था। तुमने आदेश का उल्लंघन क्यों किया।” “यमराज, मैंने आपकी आज्ञा क्या अक्षरशः पालन किया है।” “तो फिर, यह कैसे हुआ?” मृत्यु ने हाथ जोड़कर क्षमा याचना करते हुए कहा, “देव, हमने तो एक हज़ार को ही मौत के घाट उतारा है। शेष तो डर के मारे स्वयं मर कर साथ हो लिए हैं।” वस्तुतः होता यह है। वास्तविक विपत्ति से जितनी हानि होती है, उस की तुलना में कई गुना हानि लोग कर लेते हैं। भय, आशंका, चिंता, निराशा आदि की उद्विग्नता से दुखी होकर लोग अपना संतुलन गँवा बैठते हैं। और इस आपाधापी में शरीर एवं मन के तनाव से शिकार होने के साथ-साथ अपने हाथों के नीचे के कामों को ही अस्त-व्यस्त कर बैठते हैं। इसके विपरीत यदि धैर्य, साहस संतुलन कायम रखा जा से तो वास्तविक विप्पति से निपटने के लिए विवेकयुक्त उपाय सोचे जा सकते हैं एवं अनावश्यक हानियों से बचा जा सकता है।

जितना दिखता है, उतना तो आगे बढ़ो

एक भोले-भाले किसान को रात्रि के समय एक आवश्यक कार्य  से दो मील दूर किसी गांव में जाने की आवश्यकता पड़ गई। रास्ता अंधकारमय था। प्रकाश के लिए उसने लालटेन साथ में ली। पहले-पहल वह रात्रि में किसी अंय गाँव जा रहा था। उसने यात्रा आरंभ की। लेकिन आश्चर्य! घर से चार कदम चल कर वह एकाएक रुक गया। गांव का ही किसी समझदार व्यक्ति उसे जाते हुए देख रहा था। उसे यात्रा के प्रारंभ में स्तंभित होकर रुकने का कारण पूछा, “क्यों भाई, रुक क्यों गए?” किसान ने कहा, “हमें जाना है दो मील, लेकिन लालटेन के उजाले में रास्ता दिखता है केवल दस गज का। दो मील का रास्ता अंधेरे में कैसे पूरा होगा?” सज्जन ने कहा, “भले आदमी, जितना दिखता है उतना तो आगे बढ़ो। उसके बाद फिर उतना ही रास्ता आगे और दिखने लगेगा।” किसान ने बात मान ली। वह लालटेन लेकर चल पड़ा। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया, आगे का रास्ता प्रकाशित होता रहा और अंत में वह अपने लक्ष्य स्थान तक पहुंच ही गया। तात्पर्य है कि अपने विवेक के प्रकाश में जितना सत्य दिखता हो, उसको आचरण में लाते रहने का परोक्ष सत्य भी प्रत्यक्ष हो जाएगा यह निश्चय है।

किसान-विधाता-पर्वत

विधाता ने अपनी रचित सृष्टि का सर्वेक्षण करने के विचार से दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक किसान फावड़ा लेकर एक विशाल पर्वत शिखर को खोदने में तल्लीन है। कुछ विस्मय हुआ। साकार हो कर किसान के सम्मुख प्रकट हुए और उससे इस दुस्साहिक कार्य का कारण क्या है पूछा। किसान ने अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए ही बताया कि, “भगवान, बादल आते हैं और इस पर्वत शिखर से टकरा कर दूसरी ओर वर्षा कर देते हैं। मेरे खेत सूखे की सूखे ही रहते हैं। अतः मैंने संकल्प किया है कि इस पर्वत को मैं यहां से हटाकर ही चैन लूंगा।” विधाता आश्चर्यचकित हुए, “क्या तुम इतने विशाल पर्वत को अकेले ही तोड़ पाओगे?” किसान ने आत्मविश्वास के साथ कहा, “मेरा यह दृढ़ संकल्प है मुझे निश्चय इस कार्य में सफलता मिलेगी।” विधाता किसान के आत्मबल पर निर्भरता को देखकर अत्यंत प्रभावित हुए और आगे चलने को हुए। इतने में पर्वतराज  गिड़गिड़ाने लगे। “भगवान, इस किसान से मेरी रक्षा कीजिए।” विधाता के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, “गिरिराज तुम एक छोटे से किसान से इतने त्रस्त हो गए हो।” गिरिराज बोला, “किसान छोटा है तो क्या, उसका संकल्प दृढ़ है। उसका आत

भाग्य और पुरुषार्थ

“तुम्हारे पकाए हुए इन मिट्टी के बर्तनों को कोई तोड़ दे तो तुम क्या करोगे?” भगवान महावीर ने उस कुम्हार से पूछा, जो कि मिट्टी का बर्तन चाक पर बना रहा था। “यदि भाग्य में यही लिखा है तो ऐसा ही होगा” कुम्हार का उत्तर था। वह कुमार भाग्यवादी था, पुरुषार्थ उसकी दृष्टि में ज्यादा महत्व का नहीं था। “और यदि तुम्हारी पत्नी से कोई दुराचरण करे तब?” महावीर फिर पूछ बैठे। इतना सुनते ही कुम्हार का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, “किसकी हिम्मत है कि वह ऐसा कर सके। यदि कोई मेरी पत्नी की और आँखें उठाकर भी देखें तो मैं उसे अच्छी तरह निपट लूँगा।” “लेकिन यह भी तो नियतिवश ही होगा। इसमें क्रोधित होने की तो कोई बात नहीं।” महावीर के इन वचनों से कुम्हार का भ्रम दूर हुआ और नत होकर स्वीकार किया, “आप ठीक कहते हैं भगवान। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जीवन में पुरुषार्थ के द्वारा ही भाग्य का निर्माण होता है।”

श्रेष्ठ कार्य

महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ संध्या समय एक उद्यान में भ्रमण कर रहे थे। उसी उद्यान के सरोवर में कमल के फूल यथेष्ठ संख्या में खिले हुए थे। कमल के फूलों से सरोवर जैसे मुस्कुरा रहा था। उस शोभा को देखने में मग्न महात्मा बुद्ध आनंदविभोर हो रहे थे। एक शिष्य उनकी इस दशा को देखकर सरोवर से एक पुष्प तोड़ लाया एवं बुद्ध के चरणों में अर्पित कर दिया। बुद्ध के शिष्य का यह कार्य अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा, ”वत्स, तुमने यह कार्य उचित नहीं किया। किसी ने अपने परिश्रम से सरोवर की शोभा बढ़ाने के लिए इन पुष्पों को लगाया होगा। दूसरे की परिश्रम से लगे हुए पुष्पों को तोड़ने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। यह पाप है।” शिष्य ने अपने इस अनुचित कार्य को स्वीकार करते हुए क्षमा याचना की। थोड़ी ही देर बाद एक अन्य व्यक्ति आया एवं निर्दयतापूर्वक पुष्पों को तोड़कर फेंक ने लगा। इस दृश्य को भी बुद्ध ने देखा। लेकिन वह शांत रहे, उस व्यक्ति की भर्त्सना नहीं की, कुछ बोले नहीं। शिष्य से नहीं रहा गया, पूछ बैठा, “भगवान, आपको अर्पित करने के लिए एक पुष्प तोड़ने की त्रुटि के कारण आपने हमारी भर्त्सना की थी, लेकिन इतने पुष